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1. वाचना 2. पृच्छना 3. परिवर्तना और 4. अनुचिन्ता।37 जिस किसी सत्साहित्य के अध्ययन से कर्म-निर्जरा होती हो, ऐसे सुशास्त्रों का पठन-पाठन करना ही वाचना है। वाचना के अन्तर्गत वे ही ग्रन्थ आते हैं, जो विषय-विकारों के निवारण में, क्रोधादि कषायों को नष्ट करने में, ममत्व-बुद्धि को समाप्त करने में और विभाव से स्वभाव की ओर गति कराने में सहायक-रूप हों। सम्यकप्रकारेण शास्त्र एवं उनके अर्थ का अध्ययन करने से चित्त की एकाग्रता में वृद्धि होती है, साथ ही प्रज्ञा निर्मल तथा पवित्र बनती है। वह पठन-पाठन अर्थात् स्वयं पढ़ना और दूसरों को भी पढ़ाना, जिससे दोनों के धार्मिक-भावों में अभिवृद्धि होती है, वह धर्मध्यान का आलम्बन होता है।
स्थानांगसूत्र के अनुसार, आगम-सूत्रों का पठन-पाठन करना ही वाचना कहलाती है। 38
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में लिखा है कि शिष्यों को पढ़ाना अर्थात् कालिक, उत्कालिक श्रुत का दान देना ही वाचना है।39
अध्यात्मसार'40 के अनुसार, सूत्र और अर्थ- दोनों को शुद्धतापूर्वक पढ़ना वाचना है। शिष्यों को आगमों की वाचना देना और शिष्यों द्वारा मन की एकाग्रता के साथ भक्तिभाव से वाचना लेना- इससे ज्ञानावरणीय-कर्म की निर्जरा होती है तथा शास्त्रों के नए-नए अर्थों का आविर्भाव होता है। श्रुत की भक्ति के साथ रुचिपूर्वक वाचना करने से तीर्थकर-प्रणीत धर्म के प्रति अनुराग बढ़ता है और धर्मध्यान में एकाग्रता हो जाती है।41
ध्यानदीपिका में लिखा है कि शिष्य को निर्जरा हेतु सूत्रादि की वाचना देना या पढ़ना ही वाचना है।742
धर्मामृत (अनगार) में कहा गया है कि वाचना अर्थात् पढ़ना। शब्दोच्चारण की शुद्धता का ध्यान रखना, सही समझ द्वारा अर्थ को ग्रहण करना, बिना सोचे-समझे न तो
737 आलंबणाइ वायण-पुच्छण-परियट्टणाऽणुचिंताओ। - ध्यानशतक- 43. 738 स्थानांगसूत्र, संकलन- मधुकरमुनि- 4/1/67, पृ. 224. 739 शिष्याणामध्यापनं वाचना कालिकस्योत्कालिकस्य वाऽऽलापकप्रदानम्। –तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति- 25.
अध्यात्मसार, अध्याय- 16, श्लोक- 03. 741 अध्यात्मसार, अनु.- डॉ प्रीतिदर्शना, पृ. 579. 742 ध्यानदीपिका, श्लोक- 118, पृ. 275.
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