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शीघ्रगति से वाचन करना और न ही अयोग्य स्थान पर रुकना तथा शब्दशः पढ़ते हुए अक्षर अथवा पद को न छोड़ना इत्यादि वाचना है। 43
ध्यानविचार ग्रन्थ में भी इसी बात की पुष्टि की गई है। 44 संक्षेप में, गणधर द्वारा विरचित सूत्रों का योग्य शिष्य को अध्यापन कराना ही वाचना नामक धर्मध्यान का प्रथम आलम्बन कहलाता है।
2. पृच्छना-आलम्बन - ध्यानशतक ग्रन्थ के प्रणेता गाथा क्रमांक बयालीस के अन्तर्गत धर्मध्यान के दूसरे आलम्बन का निरूपण करते हुए कहते हैं कि ग्रन्थशास्त्रों की संख्या सीमित होती है, अतः बहुत सी विषय-वस्तु ग्रन्थों में समाहित न होने के कारण किसी स्थान पर अर्थ की गम्भीरता से विषय ठीक से समझ नहीं आता, तो कहीं भिन्न-भिन्न विचार-भेद के कारण संदेह उत्पन्न हो जाता है। इन सब शंकाओं का निवारण करने के लिए गीतार्थ अर्थात् विद्वानों अथवा गुरु के समीप जाकर पृच्छा करना ही पृच्छना-आलम्बन कहा जाता है। 45
शंका-समाधान के समय मन एकाग्र बना रहता है, इसलिए विषय-वासनाओं की वृत्ति उपरत हो जाती है।
स्थानांगसूत्र के अनुसार, शंका के निवारणार्थ गुरुजनों को पूछना ही पृच्छना -आलम्बन है।46
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में लिखा है कि सूत्र-विषयक शंका को पूछना ही पृच्छना
है। 47
अध्यात्मसार में कहा गया है कि पृच्छना, अर्थात् पूछना। वाचना लेते समय होने वाली शंकाओं को एवं जिज्ञासाओं को विशिष्ट ज्ञानीजनों से पूछकर यथार्थ निर्णय करना
पृच्छना है। 48
743 शब्दार्थशुद्धता द्रुतविलम्बिताधूनता च सम्यक्त्वम् ।
शुद्धग्रन्थार्थीभयदाने पात्रेऽस्य वाचना भेदः।। - धर्मामृत ।। अनगार || - 7/83. 744 ध्यानविचार-सविवेचन, संकलन- कलापूर्णसूरि, पृ. 20.
ध्यानशतक, गाथा- 42. 746 स्थानांगसूत्र, संकलन- मधुकरमुनि- 4/1/67, पृ. 224. 747 ग्रन्थः सूत्रार्थः सूत्राभिधेयं तद्विषयं प्रच्छनम्।। - तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति- 25. 748 अध्यात्मसार- 16/31.
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