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________________ 228 सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है- ज्ञान पाने हेतु आलस, प्रमाद को त्यागकर पठन-पाठन में रत रहना स्वाध्याय-तप है। 30 अभ्यास की दृष्टि से इसके पांच प्रकार हैं- 1. वाचना 2. पृच्छना 3. अनुप्रेक्षा 4. आम्नाय और 5. धर्मकथा। स्वाध्याय, अर्थात् आत्मकल्याण के लिए शास्त्रों का अध्ययन करना। समीचीन ग्रन्थों के पठन-पाठन से कर्मों का संवर एवं निर्जरा होती है।31 ___ आचार्य पतंजलि कहते हैं- स्वाध्याय से अपने आराध्यदेव का साक्षात्कार होने लगता है। __ वैदिक-महर्षियों ने कहा है- तपो हि स्वाध्यायः, अर्थात् तप ही स्वाध्याय है, साथ ही यह प्रेरणा भी दी जाती है कि स्वाध्याय में कभी आलस (प्रमाद) मत करना। 34 इस प्रकार, स्वाध्याय के अंग ही ध्यान के आलम्बन हैं। इनमें मात्र धर्मकथा को छोड़ दिया गया है। 1. वाचना-आलम्बन - पूर्व में धर्मध्यान के आलम्बन-द्वार के अन्तर्गत यह कहा जा चुका है किं वाचना, प्रश्न पूछना, सूत्रों का अभ्यास करना, उस पर चिन्तन करना, सामायिक और स्वाध्याय आदि धर्मध्यान के आलम्बन हैं। 35 जैसे रस्सी के सहारे व्यक्ति अति कठिन स्थान पर सकुशल पहुंच जाता है, वैसे ही वाचना, पृच्छनादि के आलम्बन से साधक शुद्धध्यान, अर्थात् शुक्लध्यान में अग्रसर हो जाता है। ध्यानशतक में कहा गया है कि ध्यान का साधक सूत्रों का सहारा लेकर श्रेष्ठ ध्यान तक जा पहुंचता है।36 जिनके माध्यम से साधना में प्रगति होती है, उसे आलम्बन कहते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्य आलम्बन की संख्या चार बताई गई है। वे इस प्रकार हैं 730 ज्ञानभावनाऽऽलस्यत्यागः स्वाध्यायः ।। - सर्वार्थसिद्धि, पृ. 439. 131 धर्मामृत (अनगार)- 9/25. 732 समवायांगसूत्र, संकलन- मुनि मधुकर, पृ. 34. 733 तैत्तिरीय आरण्यक- 2/14. तैत्तिरीय उपनिषद- 1-11-1. 735 ध्यानशतक, गाथा- 42. 736 विसमंमि समारोहइ दढदव्वालंबणो जहा पुरिसो। सुत्ताइ ...... समारूहइ ।। - ध्यानशतक- 43. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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