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________________ स्थानांग 715. भगवती 16. औपपातिक”, ध्यानशतक' 720 धर्मामृत (अनगार) 721, · ध्यानकल्पतरू' 5,724, ध्यानविचार 725 आदि में तथा नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि ने स्थानांगसूत्र की टीका में लिखा है कि सत्शास्त्रों का अध्ययन आत्म - हितकारी है। सत्शास्त्रों का सविधि अच्छी तरह से अध्ययन करना ही स्वाध्याय है | 726 चारित्रसार में स्वाध्याय के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि अपने स्वयं का हित करने वाला अध्यात्म-अध्ययन स्वाध्याय है। 727 तत्त्वज्ञान का पठन-पाठन और स्मरण करना ही स्वाध्याय कहलाता है | 728 715 कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में तो यह लिखा है कि पूजा - प्रतिष्ठादि से निरपेक्ष होकर मात्र कर्म - मैल के शुद्धिकरण हेतु जो मुनि जिनप्रणीत शास्त्रों को भक्तिभावपूर्वक पढ़ता है, उसका श्रुतज्ञान हितकारी तथा सुखकारी है |729 716 720 721 धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं. तं. वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्ठणा, अणुप्पेहा । । स्थानांगसूत्र- 4 / 1-67. झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं. तं. वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्ठणा, धम्मका ।। 717 औपपातिकसूत्र - 20. 718 वाचानाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ।। तत्त्वार्थसूत्र - 9/27. 719 आलंबणाणि च से चत्तारि, जथा - विसमसमुत्तरणे वल्लिमादीणि, तं जथा-वायणा पुच्छणा परियणा अणुप्पेहा, धम्मका परियट्टणे, पडति । एवं विभासेज्जा ।। - - आवश्यकचूर्णि 722 तत्त्वार्थसूत्र 18 आवश्यकचूर्णि 718, · अध्यात्मसार′22, ध्यानदीपिका 23, आलंबणा वायण - पुच्छण - परियट्टणाऽणुचिंताओ . वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ।। - धर्मामृत ।। अनगारं । । - 9 /25. वाचना चैव पृच्छा च परावृत्त्यनुचिन्तने । क्रिया चाऽऽलम्बनानीह सद्धर्माऽऽवश्यकानि च ।। - Jain Education International - • भगवतीसूत्र - 25/7. - || • ध्यानशतक, गाथा- 42. अध्यात्मसार - 16 / 31. ध्यानदीपिका - 97, श्लोक - 118. 723 आलम्बनानि धर्मस्य वाचनाप्रच्छंनादिकः । स्वाध्यायः पंचधा ज्ञेयो धर्मानुष्ठानसेवया । । 724 ध्यानकल्पतरू, तृतीय शाखा, पत्र- 1-4, पृ. 220-243. 725 ध्यानविचार - सविवेचन, पृ. 20. 726 सुष्ठु आ मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः ।। -स्थानांगसूत्रटीका, आ. अभयदेव - 5/3/465. 727 स्वस्मै हितोध्यायः स्वाध्यायः ।। चारित्रसार - 152/5. 728 स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च ।। - वही - 44/3. 729 227 पूयादिसु णिखेक्खो जिणसत्थं जो पढेइभतिजुओ । कम्ममलसोहणद्वं सुयलाहो सुहयरो तस्स ।। - कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा - 462. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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