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________________ 199 उसे शीलेश कहा जाता है। ऐसे केवली जिन ही होते हैं, जो पूर्व समय में शीलेश हो जाते हैं, अतः उन्हें सेलेसी कहा जाता है।588 स्थानांगसूत्रवृत्ति के अनुसार, यह शुक्लध्यान की चरम अवस्था है। यहां सूक्ष्म -काययोग का निरोध होने पर जीवात्मा चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करती है। यहां सूक्ष्म योगों की प्रवृत्ति सम्पूर्णतया समाप्त हो जाने के साथ ही आत्मा अयोगी-अवस्था, अर्थात् सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार, वह अपने प्राप्तव्य स्थान (स्वस्थान) पर पहुंच जाती है।569 तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि जब काययोग की श्वास-प्रश्वासरूप सूक्ष्म क्रियाएं भी समाप्त हो जाती हैं और आत्मप्रदेश सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाते हैं, तब 'व्युपरतक्रियानिवृत्ति' नामक चतुर्थ शुक्लध्यान होता है।570 हरिवंशपुराण में लिखा है कि शुक्लध्यान की अन्तिम अवस्था में केवली सूक्ष्मकाययोग की क्रिया को भी समाप्त कर देते हैं। आत्मा में किसी भी प्रकार का कोई भी प्रकल्प नहीं होता, चाहे वह स्थूल हो अथवा सूक्ष्म, उसका सदा-सर्वथा के लिए अभाव हो जाता है। योगशास्त्र में कहा है कि ध्यान की अवशिष्ट सूक्ष्म क्रिया से मुक्त होते ही केवली (अ, इ, उ, ऋ, लु- इन पांच हृस्वाक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय के लिए) शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं।572 इसमें मेरू-पर्वत की भांति निष्प्रकम्प हो जाते हैं। जब शैलेशीकरण में स्थित होते हैं, तब विछिन्न क्रिया अप्रतिपाति नामक चौथा शुक्लध्यान होता है।573 568 (क) शीलेशः सर्वसंवररूपचरणप्रभुस्तस्येमवस्था। शैलेशो वा मेरूस्तस्येव याऽवस्था स्थिरतासाधात् सा शैलेशी। – व्याख्याप्रज्ञप्ति अभय, वृ. 1, 8, 72. (ख) ध. पु. 6, पृ. 417 का टिप्पन - 1. 569 सुक्के झाणे चउविहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते, तं जहा-पुहुत्तवितक्के सवियारी, एगत्तवितक्के अविचारी, सहमकिरिए अणियट्टी, समृच्छिण्णकिरिए अप्पडिवाती।। - स्थानांगसूत्र-4/1/69. 570 पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि।। - तत्त्वार्थसूत्र- 9/41. 571 स्वप्रदेशपरिस्पन्दयोगप्राणादि कर्मणाम् । समुच्छिन्नतयोक्त तत्समुच्छिन्नक्रियाख्यया।। सर्वबन्धास्रवाणां हि निरोधस्तत्र यत्नतः । अयोगस्य यथाख्यात चारित्रं मोक्ष साधनम्।। . _ - हरिवंशपुराण- 56/78-79. 572 लघुवर्णपञ्चकोगिरण तुल्यकालमवाप्य शैलेशी।। - योगशास्त्र- 11/57. 573 (क) केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवदकम्पनीयस्य। उत्सन्नक्रियमप्रतिपाति तुरीयं परमशुक्लम् ।। - योगशास्त्र- 11/9. (ख) ईषद्स्वाक्षरपञ्चको ......... गतलेश्यः ।। - प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक- 283. स। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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