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________________ 200 अध्यात्मसार के कर्ता के अनुसार- आत्मप्रदेशस्पन्दनरूप सूक्ष्मक्रिया का उच्छेद हो जाने पर समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाती नामक चौथा शुक्लध्यान होता है। शैलेशी अवस्था में उनके आत्म-प्रदेश मेरु-पर्वत के सदृश अडिग होते हैं।574 तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में कहा है- जैसे योगों का निरोध होता है, वैसे ही बंध का भी निरोध हो जाता है। इस समय केवली भगवान् त्रस, बादर, पर्याप्त सौभाग्य, कीर्ति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, साता अथवा असाता में से एक और उच्चगोत्र, मनुष्यायु आदि कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हुए उन्हें क्षय करते हैं। यदि तीर्थकर हो, तो तीर्थकर-नामकर्म की प्रकृति को सम्मिलित करके बारह अथवा तेरह प्रकृतियों का क्षय करके सूक्ष्मकाययोग (श्वास) से मुक्ति पाने हेतु समुच्छिन्नक्रिय–अप्रतिपाती नामक शुक्लध्यान के चौथे स्तर में प्रवेश करते हैं।575 ज्ञानार्णव76 में वर्णित है- यह अति उत्तम ध्यान चौदहवें अयोगी-गुणस्थान में प्रारंभ होता है, जिसमें केवली उपान्त्य में बहत्तर अवशिष्ट तेरह कर्म-प्रकृतियों का भी नाश कर देते हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त निम्नांकित ग्रन्थों में भी शुक्लध्यान के चौथे भेद का वर्णन है, जो इस प्रकार है- प्रशमरति". षट्खण्डागम" आदिपुराण, ध्यानकल्पतरू80. आगमसार81ध्यानसार82. ध्यानस्त83. ध्यानदीपिका 574 तुरीयं तु समुच्छिन्नक्रियप्रतिपाती तत्। शैलवन्निष्प्रकम्पस्य शैश्यां विश्ववेदिनः।। - अध्यात्मसार- 16/79. 575 त्रसबादरपर्याप्तादेयशुभगकीर्ति ............ व्युपरतिक्रियमनिवर्तीत्यर्थः ।। - तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति. 576 द्वासप्ततिर्विलीयन्ते कर्मप्रकृतयस्तदा। अस्मिन् सूक्ष्मक्रिये ध्याने देवदेवस्य दुर्जयाः । विलयं वीतरागस्य तत्र यान्ति त्रयोदश। कर्मप्रकृतयः सद्यः पर्यन्ते या व्यवस्थिताः ।। - ज्ञानार्णव- 39/47, 49. 577 विगतक्रियममनिवर्तित्वमुत्तरं ध्यायति परेण। - प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक- 280. 578 समुच्छिन्ना क्रिया योगो यस्मिन्तत्समुच्छिन्नक्रियम्। समुच्छिन्न क्रियं च अप्रतिपाति च समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती ध्यानम्।। ' - षट्खण्डागम, धवलाटीका, भाग-5, पृ. 87. 579 ततो निरूद्धयोगः सन्नयोगी विगतास्रवः। __ समुच्छिन्नक्रियति ध्यानमनिवृत्ति तदा भजेत्।। - आदिपुराण- 21/196. 580 ध्यानकल्पतरू, चतुर्थ शाखा, चतुर्थ पत्र, पृ. 363. 581 आगमसार, पृ. 175. 582 अनिवृत्ति ध्यानं जायते परमेष्ठिनः । यथाऽशोषाणि कर्माणि भस्मात् कुरूतेक्षणात् ।। - ध्यानसार, श्लोक- 155. 583 स्थिरसर्वात्मदेशस्य समुच्छिन्न ...... ........ सर्वज्ञस्यानिवर्तकम्।। - ध्यानस्तव, श्लोक- 21. 584 समुच्छिन्नं ध्यानं तुर्यमार्येः प्रवेदितम् ।। - ध्यानदीपिका, श्लोक- 198. . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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