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सम्पूर्ण आत्मस्थिरता की ओर जाने वाले अत्यन्त प्रवर्द्धमान परिणाम से निवृत्त न हुई हो, ऐसी (सूक्ष्म से बादर में परिणत नहीं होने वाली) सूक्ष्मक्रिया को ही सूक्ष्मक्रिया-अनिवर्ती कहते हैं। यह अवस्था ही ध्यान कही जाती है64 और इसे ही योगनिरोध की प्रक्रिया भी कहते हैं।
आधुनिक चिन्तक विट्ठलदास के शब्दों में- "शरीर की सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया को रागद्वेष रहित होकर देखना चाहिए।" देह के समग्र हिस्से को रुके बिना देखते रहने का विधान विपश्यना एवं प्रेक्षा के अन्तर्गत आता है।565
व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति - ध्यानशतक के अन्तर्गत शुक्लध्यान के चतुर्थ प्रकार को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार ने यह कहा है कि शैल (पर्वत) की भांति कम्पन, हलन-चलन-क्रिया से रहित होकर, अर्थात् योग से रहित हुए केवली 'अयोगी-केवली' नामक चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं, उसे 'व्युच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाति' नाम का सर्वोत्कृष्ट शुक्लध्यान कहते हैं।566
'सेलेसी' शब्द प्राकृत का है तथा 'शैलेशी' इसका संस्कृत रूपान्तरण है। इसका अर्थ है- शैल के समान स्थिर ऋषि।
दूसरे शब्दों में, ‘स एव अलेसी सेलेसी', अभिप्राय यह है कि केवली लेश्या से रहित होते हैं,567 अथवा प्रकारान्तर से सर्वसंवररूप शील का जो ईश (स्वामी) है,
564 (क) सूक्ष्म क्रियमप्रतिपाति काययोगोपयोगतो ध्यात्वा विगतक्रियममनिवर्तिन्वमुत्तरं ध्यायति
परेण।। - प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक- 280. (ख) योगशास्त्र, स्वोपज्ञभाष्य- 11/53-55.
ग) अभिधान राजेंद्रकोश, भाग-4, पृ. 1662. 565 (क) विपश्यना साधना, विट्ठलदास मोदी, पृ. 7.
(ख) प्रेक्षाध्यान : प्रयोग-पद्धति, युवाचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 10. 566 तस्सेव ये सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिप्पकंपस्स।
वोच्छिन्न किरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसक्कं।। - ध्यानशतक, गाथा- 82. 567........ तदो अंतोमुहुतंसेलेसिपडिवज्जदि। ततोऽन्तर्मुहूर्तमयोगिकेवलौ भूत्वा शैलेश्यमेष भगवानलेश्यभावेन प्रतिपद्यते इति सूत्रार्थः । ............... भाव शैलेश्य सकलगुण-शीलानामैकाधिपत्यप्रतिलम्भनमित्यर्थः। - जयधवला, अ. प. 1246 (धव. पु. 10, पृ. 326 की टीका- 1)
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