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________________ 197 मात्र अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहे, तब अघाती-कर्म (वेदनीय, नाम, गोत्र) की स्थिति ज्यादा रह जाए, तब केवली उनको एक समान करने के लिए केवली-समुद्घात करते हैं।57 खवगसेढ़ी के अनुसार, आत्मप्रदेशों के समूह को देह से बाहर क्षेपण की क्रिया समुद्घात है।58 जिनके वेदनादि कर्म यदि आयुष्य जितने ही स्थिति वाले हों, तो उन्हें समुद्घात की आवश्यकता नहीं होती है। वैसे वेदनादि सात समुद्घात होते हैं, इनमें केवली-समुद्घात अन्तिम है।59 केवली जब समुद्घात करते हैं, तो उसके पूर्व उन्हें एक प्रक्रिया अवश्य करनी पड़ती है और वह है- आउज्जीकरण। आउज्जीकरण (आयोज्यकरण) – समस्त सयोगी सर्वज्ञ मोक्ष जाने के एक मुहूर्त पूर्व केवली-समुद्घात करने के पहले किए जाने वाला शुभ-व्यापारयोग आउज्जीकरण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, केवली-समुद्घात के पहले की जाने वाली त्रियोग की शुभक्रिया एक अन्तर्मुहूर्त तक कर्म--पुद्गल को उदयवलिका में डालने के रूप में उदीरणा-विशेष को आउज्जियाकरण कहते हैं।561 संक्षेप में, मन, वचन और काया की शेष अघाती-कर्मों की उदीरणा अन्तिम शुभप्रवृत्ति को ही आउज्ज या आउज्जीकरण कहा जाता है।562 इसे आयोजिकाकरण, आवश्यककरण, अवश्यकरण, आवर्जितकरण के नाम से भी सम्बोधित करते हैं।563 557 यस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुषोऽतिरिक्ततरम्। स समुद्घातं भगवानथ गच्छति तत् समीकर्तुम् ।। - प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक- 273. 558 शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशानां निस्सारणमिति समुद्घातः । – खवगसेढ़ी, पृ . 452. 559 (क) सत्त समुग्घाया पन्नता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए 1, कसायसमुग्घाए 2, मारणंतिसमुग्घाए 3, वेउव्वियसमुग्घाए 4, तेयासमुग्घाए 5, आहारसमुग्घाए 6, केवलिसमुग्घाए 7 | - पण्णवणासुत्तं (सुत्तागमे)- 36/686. (ख) प्रशमरतिप्रकरण की वृत्ति, गाथा- 273. 560 (क) कइ समएणं भंते। आउज्जीकरणे पण्णत्ते, तं जहा-गोयमा असंखेज्जसमइएअंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते ........ || - ओववाइयसुत्रं ।। सुत्तागमे ।। - पृ. 36. (ख) कइ समएणं भंते। आउज्जीकरणे ..... पण्णत्ते। पण्णवणासुयं ।।सुत्तागमे।। - 36/711. (ग) सचित्र अर्धमागधी कोष, भाग-2, पृ. 11. 561 वही, भाग- 2, पृ. 11. 562 सचित्रअर्धमागधी कोष (सं. शतावधानी रत्नचंद्रमुनि), पृ. 10-11. 563 (क) आवज्जणमुवओगो वावारो वा तदत्थमाईए । तं च गन्तुमनाः प्रारिप्सुः पूर्वमावर्जी करणमभ्येति विदधाति ......... । उच्यते-तदर्थ समुद्घातकरणार्थमादौ केवलिन उपयोगो 'मयाऽधुनेदं कर्त्तव्यम् । इत्येवं रूपः उदयावलिकायां कर्मप्रेक्षरूपो व्यापारो वाऽऽवर्जनमुच्यते। तथा भूतस्य करणमावर्जीकरणम् ।। – विशेषावश्यकभाष्य, हेमचंद्रटीका, गाथा- 3051, पृ. 243. (ख) खवगसेढ़ी, स्वोपज्ञवृत्ति, ।।श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वर ।।, पृ. 448-449. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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