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________________ 196 सूक्ष्मक्रिया निवर्ती नाम का शुक्लध्यान करते हैं और अन्त में सूक्ष्म काययोग का भी निरोध कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं।541 अध्यात्मसार में कहा गया है कि सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति- यह तीसरा ध्यान केवली को होता है। इसमें सूक्ष्म काययोग के निरोध के अतिरिक्त दूसरे दो योग (मन और वचन) का पूर्ण निरोध होता है।542 . षट्खण्डागर्म43. आदिपुराण44. तत्त्वार्थवार्तिक:45. ध्यानदीपिका ध्यानकल्पतरू47..आगमसार 48. ध्यानविचार49. ध्यानसार50. ध्यानस्तव, ध्यानामृत:52, गुणस्थानकक्रमारोह, प्रशमरतिप्रकरण54 आदि ग्रन्थों में शुक्लध्यान के तृतीय प्रकार का उल्लेख इसी रूप से उल्लेखित है। जब मन और वाणी के योग का समग्र निरोध हो जाता है और काययोग की श्वासोश्वास जैसी सूक्ष्म सहज क्रिया मात्र रहती है, तब उस अवस्था को सूक्ष्मक्रिया कहा जाता है और इसमें पतन की आशंका का अभाव है, इसलिए अप्रतिपाती है. अतः यह ध्यान वितर्क एवं विचार से रहित और सूक्ष्मक्रिया से युक्त होता है। इसमें मात्र सूक्ष्म काययोग रहता है।556 सर्वज्ञ का आयुष्य 541 श्रीमानचिन्त्यवीर्यः शरीरयोगेऽथबादरे .......... सूक्ष्मतनुयोगम् ।। – योगशास्त्र- 11/53-55. 542 सूक्ष्मक्रियानिवृत्यारख्यं तृतीयं तु जिनस्य तत् । अर्थरूद्धांगयोगस्स रूद्धयोगद्वयस्य च।। - अध्यात्मसार- 16/78. 543 षट्खण्डागम, भाग- 5, धवलाटीका, वीरसेनाचार्य, गाथा- 72, पृ. 83. 544 पुनरन्तर्मुहूर्तेन निरून्धन् योगमास्रवम्। कृत्वा वाङ्मनसे सूक्ष्मे काययोगव्यपाश्रयात्।। सूक्ष्मीकृत्य पुनः काययोगं च तदुपाश्रयम् । ध्यायेत् सूक्ष्मक्रियं ध्यानं प्रतिपातपराङ्मुखम् ।। __ - आदिपुराण- 21/194-195. 545 तत्त्वार्थवार्तिक- 9/44 की वृत्ति. 546 सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति तृतीयं सर्ववेदिनाम् ।। – ध्यानदीपिका, श्लोक- 198. 547 ध्यानकल्पतरू, अमोलक ऋषि, तृतीय पत्र, चतुर्थ शाखा, पृ. 362. 548 आगमसार, पृ. 185. 549 ध्यानविचारसविवेचन. 550 निर्वाणगतिसामीप्ये काले केवलियोगिनाम्। ___ परिस्पन्दादिरूपेण सूक्ष्मा कायिकसत्क्रिया।। – ध्यानसार, श्लोक- 151. 551 सक्ष्मकायक्रियस्य स्याद्योगिनः सर्ववेदिनः। शक्लं सक्ष्मक्रियं देव ख्यातमप्रतिपातितत।। - ध्यानस्तव, श्लोक- 20. 552 ध्यानामृत, धर्मालंकार पुस्तक से उद्धृत, पृ. 203. 553 बादरे काययोगेऽस्मिन् ..... चिद्रुप विन्दति स्वयम्।। - गुणस्थानकक्रमारोह, श्लोक- 97-100. 554 सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति काययोगोपयोगतो। - प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक- 280. 555 संस्कृति के दो प्रवाह, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 225. . 556 योगशास्त्र- 11/8. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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