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ध्यानदीपिका के अनुसार, जिन स्थलों पर जीवों ने मुक्ति प्राप्त की हो- ऐसे तीर्थस्थानों में, अच्छे स्थानों में, जहां मनुष्य न रहते हों- ऐसे स्थानों में, अथवा जहां मन को शांति मिलती हो- ऐसे प्रदेशों में मुनि को ध्यान करना चाहिए।365 योगद्वार : ध्यानशतक के अनुसार, योगों की स्थिरता से जिनका मन ध्यान में निश्चल हो गया है- ऐसे मुनियों के लिए मनुष्यों से व्याप्त ग्राम में और शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं है, अतः जिस स्थान पर ध्यान करने से मन, वचन और काया के योगों की स्थिरता में व्यवधान न हो, जो स्थान जीवाकुल प्रदेश से रहित हो- ऐसे स्थान ध्यान-साधना के लिए अनुकूल होते हैं।366
इससे यह सुस्पष्ट हो जाता है कि ध्यान के लिए शारीरिक-एकाग्रता एवं वचन का मौन भी आवश्यक है, क्योंकि उपर्युक्त दोनों आवश्यकताएं मन की एकाग्रता में सहायक होती हैं। मन जो भी विकल्प करता है, उन विकल्पों की अभिव्यक्तिं वचन और शरीर के द्वारा होती है।
टीकाकार हरिभद्र कहते हैं कि योगों की अस्थिरता की एक चतुर्भगी बनती हैएक व्यक्ति शरीर से स्थिर होता है, लेकिन मन से अस्थिर होता है। एक व्यक्ति मन से स्थिर होता है, लेकिन शरीर से अस्थिर होता है। एक व्यक्ति मन और शरीर- दोनों से अस्थिर होता है। एक व्यक्ति मन, वचन और शरीर- तीनों से अस्थिर होता है।
जिस प्रकार अस्थिरता की एक चतुर्भगी बनती है, उसी प्रकार योगों की स्थिरता की भी एक चतुर्भगी बन सकती है
शरीर से स्थिर और मन स्थिर। वचन से स्थिर और मन स्थिर। शरीर और वचन- दोनों से स्थिर। मन-वचन और काया- तीनों से स्थिर।
___ मनः प्रीतिप्रदेदेशेध्यानसिद्धिर्भवेन्मुनेः ।। – ध्यानदीपिका- 114. 366 थिर-कयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिश्चलमणाणं । गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रण्णे वण विसेसो। तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवायकायजोगाणं। भूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस्स। - ध्यानशतक- 36-37.
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