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अध्यात्मसार में लिखा है कि स्थिर योग वाले योगी के लिए तो गांव, जंगल या उपवन कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है। जहां साधि रहे, वही प्रदेश या स्थल ध्यान के अनुकूल माना जाता है।367
ध्यानदीपिका में भी इसी बात की पुष्टि मिलती है कि स्थिर योग के अभ्यासी को जन-समुदाययुक्त ग्राम अथवा शून्य जंगल- दोनों स्थान बाधारहित प्रतीत होते हैं।368
3. काल-द्वार - कालद्वार के अन्तर्गत ध्यानशतक की गाथा क्रमांक अड़तीस में कहा गया है कि सामान्यतया यह माना जाता है कि दिवस और रात्रि के संधिकाल के समय अथवा मध्याहन में ध्यान करना अच्छा होता है369, किन्तु मूल ग्रन्थकार का मन्तव्य यह है कि दिन और रात्रि के संधिकाल में ध्यान ज्यादा अच्छी तरह होता है, फिर भी न तो मूल ग्रन्थकार जिनभद्रगणि और न ही टीकाकार हरिभद्र इससे सहमत थे। वे कहते हैं कि दिवस या रात्रि आदि ध्यान के लिए आवश्यक तत्त्व नहीं हैं। साधक अपनी स्थिति के अनुसार कभी भी ध्यान कर सकता है।370
अध्यात्मसार में भी यही लिखा है कि ध्यानी के लिए काल का कोई बन्धन नहीं होता है। चित्त की स्थिरता होने के बाद काल की प्रतिकूलता का बन्धन कम हो जाता है।
ध्यानदीपिका के अनुसार, मन, वचन और काया के योग का श्रेष्ठ समाधान -कारक समय ही उपयुक्त है। ध्यान हेतु दिन, रात, वेला आदि का कोई नियम नहीं
है।372
367 स्थिरयोगस्य तु ग्रामे-ऽविशेषा कानने वने।
तेन यत्र समाधानं स देशो ध्यायतो मतः।। - अध्यात्मसार- 16/27. 368 ध्यानदीपिका, पृ. 270. 369 कालोऽवि सोच्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ।
न उ दिवस-निसा-वेलाइनियमणं झाइणो भणियं।। - ध्यानशतक, गाथा- 38. 370 दिवस निशा–वेलादिनियमनं ध्यायिनो भणितमिति ... || - ध्यानशतक, हारिभद्रीयवृत्ति, पृ. 66. 371 यत्र योगसमाधानं कालोऽपीष्ट: स एव हि।
दिनरात्रिक्षणादीनां ध्यानिनो नियमस्तु न।। - अध्यात्मसार- 16/28. 372 यत्र काले समाधानं योगानां योगिनो भवेत्। ध्यानकालः स विज्ञेयो दिनादेर्नियमोऽस्ति नः ।। – ध्यानदीपिका, श्लोक- 115.
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