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________________ 164 षट्खण्डागम एवं तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि निश्चल, स्थिर मन वाले साधक के लिए ग्राम, नगर, वन, श्मशान, गुफा, महल- सब समान हैं।360 अध्यात्मसार 61 के अनुसार, आगम में मुनि के लिए स्त्री, पशु, नपुंसक और दुःशील से रहित स्थान कहा गया है। इसमें भी ध्यान के समय को विशेष रूप से कहा है। योगशास्त्र के कर्ता हेमचन्द्राचार्य, ध्यान करने के लिए किस प्रकार के स्थान की जरूरत है- उसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि आसनों का अभ्यास कर लेने वाला योगी ध्यान की सिद्धि के लिए तीर्थकरों की जन्मभूमि या दीक्षा, कैवल्य अथवा निर्वाणभूमि में जाए। यदि जाने की सुविधा न हो, तो किसी एकान्त स्थान का आश्रय ले ।362 ज्ञानार्णव के ग्रन्थकार आचार्य शुभचन्द्रजी ने ज्ञानार्णव ग्रन्थ के पच्चीसवें प्रकरण के 'ध्यानविरुद्धस्थान' के अन्तर्गत गाथा क्रमांक बाईस से पैंतीस तक ध्यान के योग्य तथा अयोग्य स्थानों की चर्चा की है।363 आदिपुराण में भी इसी बात का समर्थन किया है कि अध्यात्म के स्वरूप को जानने वाला मुनि सूने घर में, श्मशान में, जीर्ण वन में, नदी के किनारे, पर्वत के शिखर पर, गुफा में, वृक्ष की कोटर में अथवा और भी किसी ऐसे पवित्र तथा मनोहर प्रदेश में, जहां आतप न हो, सूक्ष्म जीवों का उपद्रव न हो, इत्यादि स्थानों पर ध्यान कर सकता है।64 360 (क) थिरकयजोगाणंपुण मुणिणं झाणे .... विसेसो।। - षट्खण्डागम, भाग- 5, धवलाटीका, पृ. 67. (ख) तत्त्वानुशासन नामक ध्यानशास्त्र (रा.से.), गाथा- 90-95. 361 स्त्रीपशुक्लीबदुःशील-वर्जितं स्थानमागमे। सदा यतीनामाज्ञप्तं ध्यानकाले विशेषतः ।। - अध्यात्मसार- 16/26. 362 तीर्थ वा स्वस्थताहेतु यत्तद्वा ध्यानसिद्धये। कृतासनजयो योगी विविक्तं स्थानमाश्रयेत् । - योगशास्त्र-4-123. 363 विकीर्यते मनः सद्यः स्थानदोषेण देहिनाम् । तदेव स्वस्थतां धत्ते स्थानमासाद्य बन्धुरम् । म्लेच्छाधमजनैर्जुष्टं .................. सेव्यानि स्थानानि मुनिसत्तमैः । - ज्ञानार्णव- 25/22-35 364 शून्यालये श्मशाने वा जरदुद्यानकेऽपि वा। सरित्पुलिनगिर्यग्रगह्वरे द्रुमकोटरे। शुचावन्यतमे देशे चित्तहारिण्यपातके। नात्युष्णशिशिरे नापि प्रबुद्धतरमारूते। विमुक्तवर्षसंबाधे सूक्ष्मजन्त्वनुपद्रुते। जल संपातनिर्मुक्ते मन्दमन्द नभस्वति। - आदिपुराण- 21/57-59. 965 सिद्धतीर्थादिके क्षेत्रे शुभस्थाने निरञ्जने। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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