________________
3. विपाकविचय. चित्त का एकाग्र होना ।
कर्मफल का विचार करके उससे मुक्त होने के उपाय ढूंढने में
4. संस्थानविचय • लोक एवं जीव के संस्थान एवं स्वरूप का एकाग्रतापूर्वक चिन्तन
करना ।
धर्मध्यान के विभिन्न द्वार
आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक की मूल गाथाओं में धर्मध्यान का विवेचन विभिन्न द्वारों (बारह द्वार) के माध्यम से किया है। यहां द्वारों से तात्पर्य ध्यान के विभिन्न विषयों के वर्गीकरण से है ।
ध्यानशतक के अन्तर्गत धर्मध्यान के विभिन्न द्वारों के नाम इस प्रकार हैं-'
1. भावना - द्वार 2. देश-द्वार 3. काल -द्वार 4. आसन-द्वार 5. आलम्बन - द्वार 6. क्रम - द्वार 7. ध्येय-द्वार 8. ध्याता - द्वार 9 अनुप्रेक्षा-द्व - द्वार 10. लेश्या - द्वार 11. लिङ्ग-द्वार और 12. फल-द्वार ।
इसमें श्रमणों को निर्देश है कि वे उपर्युक्त द्वारों को जानकर धर्मध्यान में तत्पर हों और धर्मध्यान के अभ्यास के पश्चात् उन्हें शुक्लध्यान की ओर प्रगति करना चाहिए | 318
योगशास्त्र के सप्तम प्रकाश के प्रथम श्लोक के अन्तर्गत यह स्पष्ट लिखा है कि ध्यानसाधना के अभिलाषी को ध्याता, ध्येय तथा ध्यान का फल जानना चाहिए, क्योंकि सामग्री के बिना कार्य की सिद्धि कदापि नहीं हो सकती है | 319
अध्यात्मसार के रचनाकार उपाध्याय यशोविजयजी ने ध्यान का अभ्यास व्यवस्थित हो - इस हेतु पूर्व आचार्यों का अनुसरण करके बारह द्वारों का निर्देश किया है,
318
झाणस्स भावणाओ देसं कालं तहाऽऽसणविसेसं । आलम्बणं कमं झाइयव्वयं जे य झायारो ।। तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंगं फलं च नाऊणं । धम्मं झाइज्ज मुणी तग्गयजोगो तओ सुक्कं । । - 319 ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं तथा फलम् । सिध्यन्ति न हि सामग्री विना कार्याणि कर्हिचित् । ।
Jain Education International
155
ध्यानशतक, गाथा - 28-29.
योगशास्त्र - 7 / 1.
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org