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जो इस प्रकार है- 1. भावना 2. देश 3. काल 4. आसन 5. आलम्बन 6. क्रम 7. ध्यातव्य 8. ध्याता 9. अनुप्रेक्षा 10. लेश्या 11. लिङ्ग और 12. फल ।320
ध्यानदीपिका के अनुसार, धर्मध्यान की सिद्धि के लिए बुद्धिजीवियों को भावना, स्थान, आसन, काल और आलम्बनादि उपयोगी साधनों को जानना चाहिए।321
ध्यान एक साधना है और वह देश, काल-निरपेक्ष नहीं हो सकती है, इसलिए ग्रन्थकार एवं टीकाकार ने इन द्वारों का उल्लेख किया, किन्तु इनमें ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम भावना-द्वार की चर्चा की है।
भावनाएं वस्तुतः एक ओर साधक की मनोदशा की सूचक हैं, वहीं दूसरी ओर, ध्याता को किस विषय का ध्यान करना चाहिए- इसको भी वे सूचित करती हैं। 1. भावना-द्वार -जैन-साहित्य में प्राचीनकाल से ही भावना के पर्यायवाची के रूप में 'अनुप्रेक्षा' शब्द का प्रयोग मिलता है। प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता ने गाथा क्रमांक अट्ठाईस एवं उनतीस में भावना एवं अनुप्रेक्षा- दोनों की चर्चा की है। इन दोनों में कोई खास अन्तर नहीं है, सिर्फ अभ्यास की भिन्नता प्रतीत होती है। ज्ञान -दर्शनादि भावना ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए है और अनित्यादि अनुप्रेक्षा वीतराग-भाव की पुष्टि के लिए है।322
वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञ ने जिस प्रेक्षाध्यान की पुनः स्थापना की है, उसमें उन्होंने भावना को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है।23
इसी कड़ी में आचार्य श्री नानेश ने “समीक्षण ध्यानसाधना-विधि' में भी भावना का महत्त्व प्रतिपादित किया है।324
देश, काल और आसन- ये तीनों ध्यान के साधनरूप हैं, जबकि भावना ध्यान की ध्येय है। आचार्य जिनभद्रगणि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की गाथा क्रमांक तीस में यह स्पष्ट किया है कि पूर्वकृत अभ्यास और भावना के माध्यम से ही ध्यान की योग्यता प्रकट होती है।
320 भावनादेशकालौ च स्वासनाऽऽलम्बनक्रमान्। । ध्यातव्यध्यात्रनुप्रेक्षा लेश्या लिङ्गफलानि च।। - अध्यात्मसार- 16/18. 321 भावनादीनि धर्मस्य स्थानाद्यासनकानि वा।
कालश्चालम्बनादीनि ज्ञातव्यानि मनीषिभिः ।। - ध्यानदीपिका, श्लोक- 106. 322 जैनसाधना-पद्धति में ध्यानयोग, पृ. 267. 323 प्रेक्षा-ध्यान : आधार और स्वरूप, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 41-45. 324 समीक्षण ध्यानसाधना, आचार्य श्री नानेश, भाग-4, पृ. 115-150.
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