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1. सुनिपुणता - सूक्ष्म द्रव्य का निरूपण करने में अत्यन्त कुशल । 2. अनाद्यनिधना – द्रव्यादि की अपेक्षा से शाश्वत । 3. भूतहिता -
जीवों का हित चाहने वाली। 4. भूतभावना - भावना-स्वरूप।
अना - अमूल्य।
अमिता - अपरिमित। 7. अजिता - अन्य दर्शनों के वचनों द्वारा अपराजित । 8. महार्था - महान् अर्थवाली। 9. महानुभावा - प्रधान सामर्थ्य वाली। 10. महाविषया - समस्त द्रव्यादि विषयों की आज्ञा । 11. निरवद्या - असत्य वगैरह बत्तीस दोषरहित । 12. अनिपुणजनदुज्ञेया – अल्पमति वाले जीव न जान सके- ऐसी। 13. नय-भङ्ग-प्रमाण-गमगहना - नय, भङ्ग, प्रमाण आदि से युक्त ।241
2. अपायविचय - ध्यानशतक के अन्तर्गत धर्मध्यान का दूसरा प्रकार अपायविचय बताया गया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है कि कर्त्तव्यशील, धर्मध्यानी को ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि रागद्वेष, कषाय और आस्रव–क्रियाओं में प्रवर्त्तमान प्राणियों को इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी दुःख सहना पड़ेगा।242
जिस प्रकार बीमार व्यक्ति अखाद्य, अभक्ष्य या कुपथ्य के सेवन से दुःख पाता है, उसी प्रकार विषयों में आसक्त जीव राग के वशीभूत होकर इस लोक में नानाविध दुःखों, कष्टों को भोगता है, जैसे- रसनेन्द्रिय के कारण मछली, स्पर्शनेन्द्रिय के कारण हाथी अनेक दुःखों को सहता है, इत्यादि। वह दीर्घ संसारी बनकर इस भव और परभव में दुःखी होता है। जिस प्रकार वृक्ष के कोटर में आग लगती है, तो वह उस वृक्ष को
241 प्रस्तुत सन्दर्भ ध्यानशतक (सन्मार्ग प्रकाशन) से उद्धृत, पृ. 35. 242 रागद्दोस-कसायाऽऽसवादिकिरियासु वट्टमाणाणं।
इह-परलोयावाओ झाइज्जा वज्जपरिवज्जी।। - ध्यानशतक, गाथा- 50. .
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