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जलाकर भस्मीभूत कर देती है, उसी प्रकार द्वेषरूपी अग्नि प्राणी को दोनों भवों में कष्ट, दुःख प्राप्त कराती है। इस प्रकार के चिन्तन का नाम अपायविचय है।243
__ स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान के द्वितीय प्रकार का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि संसारवृद्धि के हेतुओं का विचार करते हुए उनसे बचने का उपाय करना, अर्थात् हेय क्या है ? इसको समझकर छोड़ने के प्रयत्न का विचार करना ही अपायविचय-धर्मध्यान है।
तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि दोषों के स्वरूप और उनसे मुक्ति पाने के विचारों में मनोस्थिति की एकाग्रता अपायविचय-धर्मध्यान है।245
तत्त्वार्थभाष्य में अपायविचय की व्याख्या करते हुए कहा गया है- शारीरिक, मानसिक, दुःखादि पर्यायों का अन्वेषण तथा रागद्वेष आदि उपायों में चैतसिक -एकाग्रता की प्राप्ति धर्मध्यान का द्वितीय प्रकार अपायविचय है।246
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में कहा है कि अपाय अर्थात् विपत्ति और विचय अर्थात् शारीरिक अथवा मानसिक-दुःख के कारणों का अन्वेषण या शोधन करना।
यह संसार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दुःखों से भरा है। रागद्वेष की परिणति के कारण संसार-परिभ्रमण चलता रहता है, उसके उन्मूलन हेतु चिन्तन करने से जीव को अपायविचय-धर्मध्यान प्रकट होता है।247
ज्ञानार्णव48 में कहा है कि जिस ध्यान में विद्वान्जन उपायपूर्वक हेतु के अन्वेषण के साथ-साथ कर्मों के विनाश का विचार करते हैं, उसे बुद्धिमान् गणधर आदि अपायविचय-धर्मध्यान कहते हैं।
ध्यानदीपिका में कहा गया है कि रागद्वेष, कषाय और आस्रव आदि की क्रिया में रत जीव इहलोक तथा परलोक में दुःखों से रहित निर्दोष जीवन जी नहीं पाता है। ऐसे दुःखों-कष्टों से विमुखता का चिन्तन अपायविचय-धर्मध्यान है।249
243 ध्यानशतक, सं. बालचन्द्र शास्त्री, पृ. 28. 244 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 65. 245 तत्त्वार्थसूत्र- 9/37. 246 तत्त्वार्थभाष्य- 9/37. 247 तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति, ध्यानशतक (सन्मार्ग प्रकाशन) से उद्धृत, पृ. 77. 248 अपायविचय ध्यानं तद्वदन्ति मनीषिणः .................विशुद्धज्ञानभास्वत्प्रकाशः ।
- ज्ञानार्णव, प्रकरण- 30, गाथा- 1 -17. 249 अपायविचयं ज्ञेयं .............स्मरेत् साधुः।। - ध्यानदीपिका, प्रकरण- 7, श्लोक- 123-124.
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