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________________ 144 ध्यानविचार30 एवं प्रशमरति?31 में लिखा है कि परम आप्त-पुरुष जिनेश्वर के वचन ही आज्ञा हैं और उस आज्ञा के अर्थ का निर्णय करना आज्ञाविचय है। आवश्यकटिप्पन32 षट्खण्डागमभाष्य33. ध्यानस्तव34. ध्यानकल्पतरू235. ध्यानसार36, आगमसार237 आदि अनेक ग्रन्थों में धर्मध्यान के इस प्रथम प्रकार का वर्णन इस प्रकार किया गया है- भगवान् की हितकारी, मितकारी, मंगलकारी आज्ञा शाश्वत है, समस्त जीवों की पीड़ा दूर करने वाली है,238 किसी एक जीव का भी संहार नहीं करती है, अर्थात् सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव के भी प्राणों की भी रक्षा करना चाहिए- इस आज्ञा का त्रिविध रूप से पालन आज्ञाविचय-धर्मध्यान है। जिनाज्ञा सर्वदोषरहित अर्थात् सर्वगुणसम्पन्न है। यह जिनाज्ञा गूढातिगूढ है। सूत्रों के अर्थ, जीवों की चौदह मार्गणा, पांच महाव्रत, बारह भावना, पांच इन्द्रियों का दमन आदि सत्तावन हेतुओं का चिन्तन ही धर्मध्यान का प्रथम प्रकार आज्ञाविचय-रूप है।239 आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ध्यानशतक में जिनाज्ञा के स्वरूप का प्रस्तुतिकरण करते हुए लिखते हैं कि बुद्धि की दुर्बलता से, वस्तु स्वरूप का सही बोध करने वाले आचार्यों के अभाव से, ज्ञेय की गम्भीरता से, ज्ञानावरणीय-कर्म की तीव्रता से, हेतु का अभाव और उदाहरण सम्भव न होने से- इन कारणों के द्वारा सर्वज्ञप्रणीत अवितथ वचन का सम्यकप्रकारेण अवबोध नहीं होता है, फिर भी अल्पमतिज्ञ 'सर्वज्ञप्रणीत मत सत्य है'- ऐसा समझें, क्योंकि जिनेश्वर रागद्वेष विजेता बन चुके हैं, इसलिए वे अन्यथावादी नहीं हो सकते।240 आज्ञा का स्वरूप (ध्यानशतक पर आधारित) 232 आज्ञा (आवश्यक टिप्पण) 233 षट्खण्डागम, भाष्य-5, धवलाटीका, गाथा- 38. 24 जिनाज्ञाः ......................त्वयोदितः ।। - ध्यानस्तव, श्लोक- 12. 29 ध्यानकल्पतरू, तृतीय शाखा, प्रथम-पत्र, पृ. 98. 236 जीवादिसप्तेतत्त्वानां जिनोक्तानां च चिन्तनम। ___ तदाज्ञाविचयोनाम धम्येध्यानमिदं मतम्।। - ध्यानसार- 115. 237 आगमसार, पृ. 171. 238 सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्वा । – आचारांगसूत्र- 4/1/1. 239 सूत्रार्थ मार्गणा महाव्रतभावना च पंचेन्द्रिययो च शमताति दया भावः । बन्ध प्रमोक्ष गमना गति हेतु चिन्ता ध्यानतु धर्ममिति तत्प्रवदन्ति तज्ञाः।। – सागारधर्म. 240 तत्थय मइदोब्बलेणं तविहायरियविरहओ वावि। णेय गहणत्तणेणय णाणवरणोदएणं च।। हेऊदाहरणासंभवे य ............. णण्णहावादिणो तेणं।। - ध्यातशतक, गाथा-47-49. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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