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________________ 143 आज्ञानुसार किया जाता है और तत्त्वों के स्वरूप का चिन्तन किया जाता है, वह आज्ञविचय नामक धर्मध्यान कहलाता है ।224 आदिपुराण में कहा गया है कि छह नयों के द्वारा ग्रहण किए हुए जीव आदि छ: द्रव्यों और उनकी पर्यायों के यथार्थ स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना ही ध्यान कहलाता है।225 अध्यात्मसार में यशोविजयजी धर्मध्यान के आज्ञाविचय नामक भेद का वर्णन करते हुए लिखते हैं- सर्वज्ञदेव की आज्ञा क्या है ? वह कैसी है ? उसका स्वरूप क्या है ? इस प्रकार वीतराग आज्ञा के विषयों में मन को एकाग्र करना आज्ञाविचय -धर्मध्यान कहा जाता है।226 ध्यानदीपिका में भी इसी बात का समर्थन किया गया है कि सर्वज्ञ की आज्ञानुसार आत्म और अनात्म के पृथक्करण करना अथवा भेदविज्ञान करना- यह आज्ञाविचय-धर्मध्यान है ।227 योगशास्त्र में प्रथम आज्ञाविचय-धर्मध्यान के सम्बन्ध में कहा गया है- प्रामाणिक आप्तपुरुषों की अबाधित, अविरुद्ध, अकाट्य आज्ञा का तत्त्वतः चिन्तन करना आज्ञाविचय-धर्मध्यान है।228 सम्बोधिप्रकरण में कहा है- जिनोपदिष्ट आगम के सूक्ष्म पदार्थों को आलम्बन बनाकर पदार्थ-चिन्तन में चित्त के रोकने को आज्ञाविचय कहते हैं ।229 224 वस्तुतत्त्वं .................मामनेत्।। - ज्ञानार्णव, प्रकरण- 30, गाथा-6-22. 225 षट्त्रयद्रव्यपर्याययाथात्म्यस्यानुचिन्तनम्। यत्तो ध्यानं ततो ध्येयः कृत्स्नः षड्द्रव्यविस्तरः ।। नयप्रमाणजीवादिपदार्था न्यायभासराः। जिनेन्द्रवक्त्रप्रसृता ध्येया सिद्धान्तपद्धतिः ।। – आदिपुराण, पर्व- 21, श्लोक- 109-110. 226 नयभङ्गप्रमाणाऽऽढ्यां हेतूदाहरणाऽन्विताम् । आज्ञां ध्यायेज्जिनेन्द्राणा-मप्रामाण्याऽकलङ्किताम् ।। – अध्यात्मसार- 16/36. 227 स्वसिद्धान्तप्रसिद्धं यत् वस्तुत्त्वं विचार्यते। सर्वज्ञानुसारेण तदाज्ञाविचया मतः ।। आज्ञां यत्र पुरस्कृत्य सर्वज्ञानामबाधिताम्। तत्त्वतश्चिंतयेदर्थास्तदाज्ञा ध्यानमुच्यते।। - ध्यानदीपिका, प्रकाश- 7, श्लोक- 121-122. 228 आज्ञां यत्र ..................जिनाः ।। – योगशास्त्र, प्रकरण- 10, श्लोक- 8-9. 229 सम्बोधिप्रकरण- 12/34. 230 ध्यानविचार, पृ. 22. 231 आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञा विचयस्तदर्थनिर्णयनम्। - प्रशमरति, प्रकरण, श्लोक- 248. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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