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________________ 134 की रक्षा करना भी धर्म है और उस धर्म-चिन्तन से युक्त जो ध्यान होता है, वह धर्मध्यान के नाम से जाना जाता है।176 स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्म के चिन्तन-मनन में एकाग्रता धर्मध्यान है। अन्य सभी ओर से चित्तवृत्तियों को हटाकर वीतराग के धर्मोपदेश में ही लीन रहने वाला साधक धर्मध्यान की स्थिति में स्थित है। ज्ञानसार के अनुसार, शास्त्रवाक्यों के अर्थों, व्रतों, गुप्तियों, समितियों, भावनाओं आदि का चिन्तन करना ही धर्मध्यान कहलाता है। 178 विश्व के अधिकतर धर्मों में समाधि, समभाव या समता को धार्मिक-जीवन का मूलभूत लक्षण माना है। 179 आचारांगसूत्र में कहा है कि समता धर्म है, ममता अधर्म ।180 अध्यात्मसार में लिखा है कि अनादिकाल के संस्कारों के कारण व्यक्ति आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान से परिचित है, अतः उसे प्रबल पुरुषार्थ के साथ-साथ उत्साहपूर्वक धर्मध्यान में उद्यमशील होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, अप्रशस्त-ध्यान से विरत होकर जीव को प्रशस्त-ध्यान में संलग्न होना चाहिए।181 प्रशमरति-प्रकरण में कहा है कि शील के अठारह हजार भेदों को धारण करके जो साधु उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त करता है, वह अठारह हजार भेदों वाला भी धर्मध्यानी है।182 176 (क) धम्मो वत्थु सहावो, खमादिभावोय-दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो।। - कारि था-478. (ख) सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः। तस्माद्यदनपेतं हि धर्म्य तद्धयानमभ्यधुः ।। - तत्त्वानुशासन- 51. (ग) उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । - तत्त्वार्थसूत्र-9/6. 177 स्थानांगसूत्र- 4/247. 178 सुत्तत्थधम्म मग्गणवय गुत्ती समिदि भावणाईणं। जं कीरड चिन्तवणं धम्मज्झाणं च इह भणियं ।। - ज्ञानसार- 16. 119 (क) आया खलु सानाइयं। (ख) समताभाव-स्वरूप सामायिक आकाश की तरह समस्त गुणों का आधार है। - 'सामायिक धर्म : एक पूर्ण योग' से उद्धृत, पृ. 04. 180 समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए। - आचारांगसूत्र- 1/8/3. 181 अप्रशस्ते इमे ध्याने दुरन्ते चिरसंस्तुते। प्रशस्तं तु कृताभ्यासो ध्यानमारोढुमर्हति।। - अध्यात्मसार- 16/17. 182 धर्माद्भूम्यादीन्द्रियसंज्ञाभ्यः करणतश्चयोगाश्च । शीलाङ्गसहस्राणामष्टादशकस्य निष्पत्तिः ।। शीलार्णवस्य पारं गत्वा संविग्नसुगमपारस्य । धर्मध्यानमुपगतो वैराग्यं प्राप्नुयाद्योग्यम्।। - प्रशमरति-प्रकरण-245, 46. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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