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धर्मध्यान का स्वरूप व लक्षण धर्मध्यान का स्वरूप - अनादिकाल से जीव को आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान का अभ्यास है, अतः जीव को इस ध्यान की कला सहज प्राप्त है। ये दोनों ध्यान अत्यन्त दुःखप्रद एवं भव-परम्परावर्द्धक हैं।170. इन दोनों ध्यानों से संचित अशुभ अध्यवसायों को दूर करने के लिए प्रबल धर्म-पुरुषार्थ की सतत आवश्यकता है।171
धर्म जीवन का वैभव है। धर्म के माध्यम से ही आत्मा की स्वभावदशा को आत्मसात् कर सकते हैं।'72 धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण ही मनुष्य को शाश्वत शान्ति और सुख देने के लिए हुआ
है।173
धर्म का चिन्तन धर्मध्यान है। यह आत्मविकास का प्रथम चरण है, क्योंकि इस ध्यान के माध्यम से जीव का रागभाव मन्द होता है और वह आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्त होता है। इस संसार के समस्त प्राणी दुःखी, परेशान, कष्टमय हैं, अतः सभी जीव ऐसे स्थानों की तलाश में रत हैं, जहां थोड़ा-सा भी दुःख न हो। ऐसे अभीष्ट स्थान पर जो जीव को पहुंचाता है, वही धर्मध्यान है।174 ।
___जैसा कि प्रवचनसार की तात्पर्यव्याख्यावृत्ति में कहा गया है कि जो मिथ्यात्व, राग आदि में हमेशा संसरण करते हुए प्राणियों को भवसागर से ऊपर उठाता है और विकार-रहित शुद्ध चैतन्यभाव में परिणत करता है, वह धर्मध्यान है।75
वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की दृष्टि से धर्म दस प्रकार का है। रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र को धर्म कहा गया है तथा जीवों
17° (क) ध्यानद्वयं विसृज्याद्यमसत्संसारकारणम् । – आदिपुराण, पर्व- 21/55.
(ख) अवधट्ठ अट्टरूद्दे महमयेसुरगदीय पच्चुहे। - मूलाचार, कुन्दकुन्दस्वामी विरचित. 171 ध्यानविचार सविवेचन पुस्तक से उद्धत, पृ. 16. 172 मृत्यु पाथेय, पृ. 70. 173 'धर्म का मर्म' पुस्तक की भूमिका से उद्धृत, डॉ सागरमल जैन, पृ. 06. 174 इष्ट स्थाने धत्ते इति धर्मः। - सर्वार्थसिद्धि- 9/2. 175 मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे प्राणिनमुद्धृत्य निर्विकार शुद्ध चैतन्ये धरतीति धर्मः ।
- प्रवचनसार, तात्पर्यव्याख्यावृत्ति- 7/9.
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