________________
135
धर्मरसायन ग्रन्थ में लिखा है कि तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित183 धर्म इस लोक तथा परलोक के लिए हितकारी एवं कल्याणकारी है, साथ ही जन्म, जरा, मृत्यु का निवारक
है। 184
आगमसार में उल्लेखानसार, धर्म का चिन्तन, उसमें एकाग्रता अर्थात् तन्मयता को धर्मध्यान कहा है। वह पांच विभागों में विभक्त है1. कारणधर्म - व्यवहार-क्रिया करना। 2. साधनधर्म - श्रुतज्ञान और चारित्र, उपादानरूप। 3. अपवादधर्म - रत्नत्रयी भेदरूप, अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र के भेदस्वरूप
उपादान, शुद्ध उत्सर्गानुयायी व्यवहार । 4. उत्सर्गधर्म - रत्नत्रयी के अभेदरूप शुद्ध साधन निश्चयनय। 5. शुद्धधर्म - 'वस्तु सहावो धम्मो' वास्तविक धर्म वही है, जो वस्तु का
स्वभाव है।185 ध्यानस्तव के अन्तर्गत धर्म के स्वरूप को निर्दिष्ट करते हुए कहा गया हैउत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शोच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्यरूप दस प्रकार के धर्मो को और वस्तु के स्वरूप को धर्म कहा है।186
परमात्मप्रकाश के रचयिता योगिन्दुदेव ने धर्मध्यान का अन्तिम लक्ष्य बताते हुए कहा है कि वीतराग परमानन्द सुख में क्रीड़ा करने वाले केवलज्ञानादि अनन्त गुणों वाले अविनाशी शुद्ध आत्मा का एकाग्रचित्त होकर ध्यान करना, दूसरे शब्दों में, सभी शुभाशुभ रोगों से, रसों से,रूपों से चलायमान् चित्त को रोककर अनन्त गुण वाले आत्मदेव का चिन्तन करना धर्मध्यान है।187
183 धम्म सव्वण्हुपण्णतं। - धम्मरसायणं- 94. 184 (क) वुहजणमणोहिरामं जाइजरामरणदुक्खणासयरं।
इहपरलोयहिजत्थं तं धम्मरसायणं वोच्छं।। - वही, 02. (ख) जाई-जरा-मरण-सोग-पणासणस्स, कल्लाण-पुक्खल-विलास-सुहावहस्सं।
को देव-दाणव-नरिंद-गणच्चियस्स, धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं।। - आवश्यकसूत्र. 185 आगमसार, पृ. 170.-171. 186 उत्तमो वा तितिक्षादिर्वस्तरूपस्तथापरः। - ध्यानस्तव, श्लोक- 13 187 सव्वहिं रायहिं छहिं रसहिं पंचहिं रूवहिं जंतु।
चित्तु णिवारिवि झाहि तुहु अप्पा देउ अणंतु।। - परमात्मप्रकाश- 172.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org