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________________ 128 शंका में रत रहना, दूसरों के प्राणों के घात के विचार से आकुल-व्याकुल रहना, धनसंचय में गाढ़ आसक्ति रखना143 परिग्रहानुबन्धी-रौद्रध्यान है। परिग्रह दो प्रकार का है144_ 1. बाह्य-परिग्रह एवं 2. आभ्यन्तर-परिग्रह। इसके अतिरिक्त, क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्यादि नौ प्रकार का बाह्य-परिग्रह है एवं मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और तीन वेद (पुरुष, स्त्री, नपुंसक) - ये चौदह प्रकार के आभ्यन्तर-परिग्रह हैं। इनके संरक्षण की सतत चिन्ता परिग्रहानुबन्धी-रौद्रध्यान है। ज्ञानार्णव में लिखा है कि दुष्ट अभिप्रायवाला प्राणी, जो आरंभ और परिग्रह के संरक्षण के विषय में सदा प्रयत्नशील रहता है, उसके लिए संकल्प-विकल्प करता रहता है, अपने-आपको शक्तिमान्, बुद्धिमान् आदि सबकुछ समझता है, यानी, ऐसा समझता है कि उसके जैसा दूसरा कोई नहीं है, वह ही सबकुछ है- यह सब चतुर्थ रौद्रध्यान के ही प्रकार हैं, ऐसा निर्मल बुद्धि के धारक गणधरादि का कथन है।145 आदिपुराण में कहा गया है कि येन-केन-प्रकारेण धन का उपार्जन करना, निरन्तर धनसंग्रह आदि का चिन्तन करना संरक्षणानन्द नामक चौथा रौद्रध्यान है।146 स्थानांगसूत्र की दृष्टि से संरक्षणानुबन्धी-रौद्रध्यान वह है, जिसमें जीव निरन्तर परिग्रह के अर्जन तथा संरक्षण के सम्बन्ध में तल्लीन रहता है। 147 अध्यात्मसार में उपाध्यायप्रवर यशोविजयजी ने कहा है कि धन की सुरक्षा के लिए युक्ति-प्रयुक्ति का विचार करते रहना, भय और आशंका से अशुभ-विचार करते रहना, कोई मेरे धन को छुएगा भी, तो मैं उसे मार डालूंगा- ऐसी कल्पना करना, कोई मुझे बुरी नजर से देखेगा, तो मैं उसकी आंखें फोड़ दूंगा, जान से मार दूंगा- ऐसे विचार मन में लाना संरक्षणानन्द नामक चतुर्थ रौद्रध्यान है। ऐसा जीव व्यर्थ में पाप का बोझा लेकर नरक की ओर प्रयाण करता है।148 143 दशवैकालिक अ. 6. गाथा-21. (क) मूलाचार, भाग- 1, अधि.- 5, श्लोक- 2 (ख) आचारसार, अधि.- 5, श्लोक- 61. 145 बहवारम्भपरिग्रहेषु ........ .............जगदेकना थैः। - ज्ञानार्णव, सर्ग- 26. श्लोक- 29-35. 146 भवेत् संरक्षणानन्दः स्मृतिर्थार्जनादिषु.... || – आदिपुराण- 21/51. 11 स्थानांगसूत्र, स्था.- 4, उद्देशक- 1, सूत्र-63. पृ. 223. 148 सर्वाभिशङ्काकलुषं, चित्तं च धनरक्षणे।। - अध्यात्मसार- 16/12. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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