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ध्यानदीपिका में बताया गया है कि अतिआरम्भ, अतिपरिग्रह के लिए संग्राम करक, या जीवों का घात करके परिग्रह की रक्षा करने का दृढ़ प्रणिधानरूप संरक्षणानुबन्धी-रौद्रध्यान है। 49
आवश्यकचूर्णि में रौद्रध्यान के चारों भेदों का सुन्दर वर्णन किया गया हैत्रस-स्थावरं जीवों की हिंसा, झूठ बोलने की प्रगाढ़ इच्छा, चोरी के अध्यवसाय तथा सोना, चांदी की रक्षा हेतु दूसरों का घात करना- ये सभी रौद्रध्यान के रूप हैं।150
सम्मतितर्क-वृत्ति में कहा गया है कि हिंसा के आनन्द, असत्य-भाषण के आनन्द, चोरी के आनन्द और धन-संरक्षण के आनन्द- इनके भेद से रौद्रध्यान के चार प्रकार हैं।151
हितोपदेशवृत्ति में भी रौद्रध्यान को निम्न चार प्रकार का माना गया है- 1. प्राणियों का वध आदि हिंसानुबन्ध करने वाला प्रणिधान 2. पिशुन, असभ्य आदि वचनों का प्रणिधान 3. तीव्रलोभ के वशीभूत होकर परद्रव्यादि का हरणरूप प्रणिधान और 4. धन की सुरक्षा, सभी पर शंका, जीवों के उपघात-सम्बन्धी प्रणिधान ।152
तत्त्वार्थसूत्र'53, तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति, प्रशमरतिवृति'55, ध्यानकल्पतरू156 ध्यानविचार'57. आगमसार'58, स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा'59. सिद्धान्तसारसंग्रह ध्यानसार161 आदि ग्रन्थों में भी इसी बात का समर्थन किया गया है कि हिंसा में आनन्द मानना, झूठी गवाही देना, दूसरों को ठगने के उपाय सोचना आदि में मन का तन्मय या तल्लीन होना, धन का हरण करने तथा धनधान्य आदि की सुरक्षा हेतु रात-दिन मन का अशुभ अध्यवसाय में निमग्न रहना रौद्रध्यान है। इन कालुष्य –परिणामों के कारण जीव
149 बह्यारम्भपरिग्रह संग्रामैर्जन्तुघातवो रक्षाम्।
कुर्वन् परिग्रहादेः रक्षारौद्रीति विज्ञेयम् ।। - ध्यानदीपिका, श्लोक- 92, पृ. 6. 150 हिंसं अनुबंधति पुणो पुणो ......सारक्खणाणुबंधे सेशं तहेव।। - आवश्यकचूर्णि. 151 रूद्रे भवं रौद्रं हिंसाऽनृत-स्तेय-संरक्षणाऽऽनन्दभेदेन चतुर्विधम्।। - सम्मतितर्कवृत्ति, का. 3. 152 परिचत्त अट्ठरूद्दे। – हितोपदेशवृत्तौ- 484. 153 हिंसा-नृत-स्तेय-विषय संरक्षणेभ्यो रौद्रम् विरत......... || - तत्त्वार्थसूत्र- 9136. 154 हिंसा अनृतं स्तेयं विषयसंरक्षणं चेति द्वन्द्वः। - तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति- 36. 155 रूद्र क्रूरो नृशंसस्तस्यैदरौद्रम् तदपि चतुर्धा। - प्रशमरतिवृति- 20. 156 ध्यानकल्पतरू, द्वितीय शाखा, चतुर्थ पत्र, पृ. 42-49. 157 ध्यानविचार सविवेचन, पृ. 15.
आगसार, पृ. 170. 159 स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा- 475- 476. 100 सिद्धान्तसारसंग्रह- 11/45.
ध्यानसार, श्लोक- 100-109.
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