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________________ . 127 तत्त्वार्थसूत्र'32. ध्यानकल्पतरू133. ध्यानविचार'34. आगमसार135 स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा' सिद्धान्तसारसंग्रह”, श्रावकाचारसंग्रह'38 तथा ध्यानसार'39 इत्यादि ग्रन्थों में भी रौद्रध्यान के तीसरे प्रकार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि चोरी के कार्यों में तत्परता होना, दूसरों की चौर्यकला या कौशलता की प्रशंसा करना, चतुष्पद जीवों को अपने सामर्थ्यबल से वश में करके भोगना, परद्रव्यहरण का सतत चिन्तन करना-कराना और उसका अनुमोदन करना, उसमें हर्षित या आनन्दित होना ही स्तेयानुबन्धी, चौर्यानन्द अथवा तस्करानुबन्धी-रौद्रध्यान है। स्थानांगसूत्र'40 की दृष्टि में स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान वह है, जिसमें निरन्तर चोरी करने-कराने की प्रवृत्ति-सम्बन्धी चित्तवृत्ति की एकाग्रता होती है। 4. विषयसंरक्षणानुबन्धी-रौद्रध्यान - ध्यानशतक के रचनाकार विषय संरक्षणानुबन्धी-रौद्रध्यान के चतुर्थ स्वरूप का निर्देश इस प्रकार करते हैं शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श- इन इन्द्रिय-विषयों के भोग का आधार धन है। इसी कारण से विषयासक्त जीव की चिन्तनधारा उस धन के संरक्षण में केन्द्रित रहती है। हर पल उसके मन में एक शंका बनी रहती है कि न जाने कौन किस समय क्या अनर्थ करेगा, अतः उसके लिए तो सबका घात कर डालना ही हितकर है- इस प्रकार के जो उसके कलुषित विचार होते हैं, वही विषयसंरक्षणानुबन्धी –रौद्रध्यान है।141 दूसरे शब्दों में कहें, तो अतितीव्र क्रोध और लोभ से आकुल-व्याकुल142 जीव का विषयों की प्राप्ति और धन की सुरक्षा में लगे रहना, अनभीष्ट चिंतन में डूबे रहना, सतत 132 तत्त्वार्थसूत्र- 9136. 133 ध्यानकल्पतरू, द्वितीय शाखा, तृतीय पत्र, पृ. 38-42. ध्यानविचारसविवेचन, पृ. 15 135 आगमसार, पृ. 169. 136 स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, स्वामी कुमार, गाथा- 475-476. 137 सिद्धान्तसारसंग्रह- 11/44. श्रावकाचारसंग्रह- 41.5, पृ. 351. 139 ध्यानसार, श्लोक-91-98. 140 रोद्दे झाणे ................... || - स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 7, सूत्र- 63, पृ. 223. 141 सद्दाइविसयसाहण धणसारक्खणपरायणम णिटुं । सत्वाभिसंकणपरोवधायकलुसाउलं चित्तं।। - ध्यानशतक, गाथा- 22. 142 आचारांगसूत्र में आकुल-व्याकुल के अर्थ में झंझा शब्द का प्रयोग हुआ है। - आयारों, अ. 3, ए. 3. सू. 63. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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