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________________ मार्ग पर गतिशील करना, लोगों को कष्ट में डालकर वांच्छित सुख भोगना, असत् कल्पनाओं द्वारा मन को मलिन करने की चेष्टाएं निश्चयरूप से मृषानन्द नामक रौद्रध्यान है । तत्त्वार्थसूत्र'19 ध्यानकल्पतरू' ध्यानविचार'21, आगमसार122 ₹125 आदि ग्रन्थों में स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा 123 सिद्धांतसारसंग्रह 124 और ध्यानसार' " लिखा है कि असत्य किस प्रकार बोला जाए, किस प्रकार असत्य बोलकर दूसरों को धोखा दिया जाए, ठगाई की जाए, सम्पत्ति का हरण किया जाए इत्यादि अथवा संकल्पपूर्वक छल-कपट करके दूसरों को सन्तप्त करने के लिए एकाग्रतापूर्ण असत्य का चिन्तन करना मृषानन्द नामक दूसरे प्रकार का रौद्रध्यान है। दूसरे अर्थ में, परवंचना में प्रयत्नशील या प्रच्छन्न पाप-प्र प - प्रवृत्ति से युक्त जीव के पिशुन, असभ्य, असद्भूत तथा प्राणी के घात करने वाले वचनों में उद्यमशील न होने पर भी जो उनके प्रति दृढ़ चिन्तन होता है, वह भी मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान है । 3. स्तेयानुबन्धी- रौद्रध्यान ध्यानशतक में स्तेयानुबन्धी- रौद्रध्यान को परिभाषित करते हुए जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कहते हैं कि तीव्र क्रोध और तीव्र लोभ में आकुल-व्याकुल होकर दूसरे प्राणियों का हनन करने और दूसरों के पदार्थों का हरण करने का चिन्तन करना तथा पारलौकिक-अपायों अर्थात् नरक में जाने का डर या भय न रहना, वह रौद्रध्यान का स्तेयानुबन्धी नामक तृतीय प्रकार है । 126 मोल में, तौल में, माप में, छाप में दूसरों को ठगने या लूटने का विचार करना, ग्राहकों को विश्वास में लेने के लिए गाय की, बच्चे की, भगवान् की कसम खा जाना, अपेक्षित लाभ होने पर प्रसन्न प्रपात्य व्यसने लोकं, भोक्ष्येऽहं वाच्छितं सुखम् ।। असत्य कल्पना कोटी- कश्मलीकृतमानसः । चेष्टते यज्जनस्तद्धि-मृषानन्द हि रौद्रकम् ।। 'तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 36. ध्यानकल्पतरू, द्वितीय शाखा, द्वितीय पत्र, पृ. 33-37. 121 ध्यानविचारसविवेचन, पृ. 15. 122 119 120 -120 आगमसार, पृ. 169. 123 स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा - 475. 124 सिद्धान्तसारसंग्रह - 11 /43. 125 ध्यानसार, श्लोक - 84-90. 126 तह तिव्वकोह-लोहाउलस्स भूओवधायणमणज्जं । परदव्वहरणचित्तं परलोयावायनिरविक्खं । । Jain Education International 125 ध्यानदीपिका, प्रकाश - 6, श्लोक - 87-88. ध्यानशतक, गाथा - 21. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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