SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 124 धान्य, मकान, दुकान आदि प्राप्त कर लूंगा और मैं आजीवन सुख भोगूंगा- ऐसे अनेक प्रकार के असत्य मनोभावों का होना ही मृषानुबन्धी-रौद्रध्यान है।113 ज्ञानार्णव' में लिखा है- 'मैं अपने असत्य-भाषण की चतुराई के प्रभाव द्वारा लोगों से धनधान्य, हाथी-घोड़ा, नगर, सुवर्ण की खानों, सुन्दर कन्याओं आदि को ग्रहण करूंगा, इस प्रकार अपनी वाक्पटुता के द्वारा जनसाधारण को ठगते हुए उन्हें समीचीन मार्ग से स्पष्ट करके कुमार्ग में प्रवर्त्तमान करने और दूसरे लोग मेरी चतुराई से अकरणीय कार्यों में प्रयत्नशील होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है- ऐसे विचार करने को भी प्राचीन ऋषियों ने मृषानन्दस्वरूप-रौद्रध्यान कहा है। आदिपुराण'15 में भी इसी बात का समर्थन किया गया है कि झूठ बोलकर असत्य-वचनों द्वारा लोगों को धोखा देने का चिन्तन करना मृषानन्द नाम का दूसरा रौद्रध्यान है। अध्यात्मसार116 में लिखा है कि मृषा अर्थात् असत्य । असत्य के अनेक प्रकार हैं, जैसे- दुष्टवचन बोलने का मन में विचार उत्पन्न होना, चुगली करने का विचार करना, किसी की गुप्त बात अथवा मर्म प्रकट करने का विचार करना, अपमानजनक शब्द बोलने का भाव होना, गाली, ठगाई, झूठा आरोप लगाने में सफाई से पेश आना आदि के द्वारा मन में मात्र कल्पनाओं के द्वारा रौद्रध्यान करना भयंकर कर्मबन्ध का कारण है तथा माया या कपट के कारण ऐसा मृषानुबन्धी-रौद्रध्यान जीव को दुर्गति में ले जाता है। स्थानांगसूत्र17 के अनुसार, हिंसानुबन्धी-रौद्रध्यान वह है, जिससे असत्य-भाषण सम्बन्धी चित्तवृत्तियों की एकाग्रता होती है। ध्यानदीपिका18 में रौद्रध्यान के द्वितीय भेद का उल्लेख करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है- असत्य-कल्पना के द्वारा अन्य को ठगना, शस्त्र बनवाना, किसी को हिंसा के 113 ध्यानशतक किताब से उद्धृत, सं. - कन्हैयालाल, डॉ सुषमा, पृ. 20. 114 असत्यकल्पनाजाल ....मृषानन्दात्मकं रौद्रं तत्प्रणीतं पुरातनैः ।। - ज्ञानार्णव, सर्ग- 26, श्लोक- 16-23. 115 मृषानन्दो 'मृषावादैरतिसन्धानचिन्तनम्। वाक्पारूष्यादिलिङ्गं तद् द्वितीयं रौद्रमिष्यते।। - आदिपुराण, पर्व- 21, श्लोक- 50. 116 पिशुनाऽसभ्यमिथ्यावाक् प्रणिधानं च मायया। - अध्यात्मसार- 16/11. 117 रोद्दे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-हिंसाणुबन्धि, मोसाणुबन्धि ...... || ___- स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 63. पृ. 223. 118 विधाय वच्चकं शास्त्रं मार्गमुद्दिशय हिंसकम्। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy