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तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में भी यही कहा है कि वेदना दो प्रकार की होती है- 1. सुखकारिणी और 2. दुःखकारि-गी। इसमें अमनोज्ञ (दुःखकारिणी) वेदना का संयोग होते ही पीत, श्लेष्म, सन्निपात इत्यादि निमित्तों से शूलशिरवेदना, कम्पन-ज्वर, अश्रुपात, दांतों का कम्पन आदि दुःखकारिणी वेदना के वियोग की निरन्तर चिन्ता आतुर-चिन्ता (वेदना) नामक दूसरा आर्त्तध्यान है।35
ज्ञानार्णव के अन्तर्गत आर्त्तध्यान के द्वितीय भेद का वर्णन करते हुए लिखा है कि काश, श्वास, भगन्दर, पेट का यकृत, कोढ़, अतिसार, ज्वर आदि तथा पित्त, कफ और वायु के प्रकोप से उत्पन्न होकर शरीर को नष्ट करने वाले रोगों से प्रतिसमय व्याकुलता होती है, उसे विद्वानों ने रोगार्त्तध्यान कहा है।36
ध्यानदीपिका में भी इसी बात का समर्थन करते हुए कहा है कि किंचित् मात्र रोगों का समागम स्वप्न में न हो- इस प्रकार मनुष्यों को जो चिन्ता होती है, वह रोगात आर्तध्यान है।
आदिपुराण में कहा है कि वेदना उत्पन्न होने पर जो ध्यान होता है, वह ध्यान वेदनोपगमोद्भव नामक दूसरे प्रकार का आर्तध्यान है।
शारीरिक या मानसिक-पीड़ा, जिससे व्यक्ति सदा भयभीत रहता है, ऐसा भयजन्य दुःख वास्तविक दुःख से भी अधिक भयंकर होता है। मानव-जीवन अनेक दुःखों से ग्रस्त तथा त्रस्त है। उन दुःखों से मन को जोड़ लेना, उनसे द्वेष रखना, उनको दूर करने की सतत चिन्ता करना- यही दूसरे प्रकार का आर्तध्यान है।9
ध्यानस्तव में भी कहा है कि पीड़ा के विनाश के लिए जीव को जो निरन्तर स्मरण या चिन्तन होता है, वह आर्तध्यान का दूसरा प्रकार है।
35 सुखा दुःखा चोभयी वेदना। तत्रामनोज्ञायाः सम्प्रयोगे वेदनायाःप्रकुपितपवनपित्तश्लेष्मसन्निपातनिमित्तैरूपजातायाः शूलशिरःकम्पज्वराक्षिश्रवणदशनादिकायास्तद्विप्रयोगायस्मृतिसमन्वाहारोध्यानमार्तमेष द्वितीयो विकल्पः ।
_ - तत्वार्थसिद्धवृत्तौ. 36 कासश्वासभगन्दरोदरजराकुष्ठातिसारज्वरैः, पित्तश्लष्ममरूत्प्रकोपजनितै रोगैः शरीरान्तकैः । स्यात्सत्त्वप्रबलैःप्रतिक्षणभवैर्यद् व्याकुलत्वंनृणाम्, तद्रोगातमनिन्दितैःप्रकटितं दुरदुःखाकरम् ।।32 ।। स्वल्पानामपिरोगाणां माभूत्स्वप्नेऽपिसम्भवः । ममेति या नृणां चिन्ता, स्यादात तत्तृतीयकम् ।।33 ।।
- ज्ञानार्णव, सर्ग- 25. 3" अल्पानामपि रोगाणां, मा भूत्स्वप्नेऽपि सङ्गमः । ___ममेति या नृणां चिन्ता, स्यादात तत्तृतीयकम्।। – ध्यानदीपिका, प्रकरण- 5, श्लोक 76. 38 आदिपुराण, पर्व- 21/35. 39 चिन्तनं वेदनायाश्च व्याकुलत्वमुपेयुषुः। - अध्यात्मसार- 16/4. 40 पुंसः पीडाविनाशाय स्यादात सनिदानकम् ।। – ध्यानस्तव, श्लोक- 10.
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