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________________ 110 ध्यानसार में श्लोक क्रमांक बंयालीस से पचास तक आर्त्तध्यान के दूसरे प्रकार का वर्णन मिलता है। 3. इष्टवियोग आर्तध्यान - ध्यानशतक के अन्तर्गत आर्त्तध्यान के चार प्रमुख प्रकार माने जाते हैं। उनके निरूपणार्थ ग्रन्थकार तृतीय इष्टवियोग आर्त्तध्यान का निरूपण करते हैं व्यक्ति को इष्ट विषय के मिलने पर या अनुकूल अनुभव होने पर उन प्राप्य विषयभोगों का विरह न हो- ऐसी रागयुक्त परिणति तथा इनके संयोग की स्थिरता हेतु जो सतत अभिलाषा रहती है, वह तीसरा इष्टसंयोग-आर्त्तध्यान है।42 ___स्थानांगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति 5 में इस ध्यान का विवेचन है। स्थानांगसूत्र में स्पष्टरूप से लिखा है कि इष्ट वस्तु का वियोग न हो, बल्कि पुनः-पुनः संयोग हो, ऐसा बार-बार चिन्तन करना मनोज्ञ-आर्तध्यान है। ___ तत्त्वार्थसूत्र में भी यही लिखा है कि किसी प्रियवस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए पुनः सतत चिन्ता करना तीसरे प्रकार का आर्त्तध्यान है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में आर्तध्यान के तीसरे प्रकार की व्याख्या करते हुए लिखा है कि मनोज्ञ पदार्थ का वियोग होने पर उन पदार्थों के पुनः संयोगरूप मानसिक-व्यापार, जैसे- मुझे इन मनोज्ञ पदार्थों का संयोग कैसे हो - ऐसा आसक्त मन का प्रणिधान इष्टवियोग-आर्त्तध्यान है। 41 शत्रुदुर्जनचोराग्नि............ सर्वमिष्टं हि जायते।। - ध्यानसार, श्लोक- 42-50, पृ. 12-15. 42 इट्ठाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स। अवियोगऽज्झवयाणं तह संजोगाभिलांसो य।। - ध्यानशतक, गाथा- 8.' ५७ मणुण्ण संपओगं-संपउत्ते, तस्स विप्पओग-सति-समण्णागते यावि भवति। - स्थानांगसूत्र, ___ चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 61, पृ. 222. 44 विपरीतं मनोज्ञानां - तत्त्वार्थसूत्र-9/33. 45 मनोज्ञा अभिरूचिता इष्टां प्रीतिहेतवस्तेषां विपरीतं संयोजनं कार्यम् । मनोज्ञानामित्यादि। मनोज्ञानाम विषयाणां वेदनायाश्च मनोज्ञाया। विपरीतप्रधानार्थाभिसम्बन्धो विपरीतशब्देन क्रियत इत्याह-विप्रयोगे तत्सम्प्रयोगायेत्यादि । तत्सम्प्रयोगार्थस्तत्सम्प्रयोगाय सम्प्रयोगप्रयोजनः स्मृतेः समन्वाहारः। कथं न नाम भूयोऽपि तैः सह मनोज्ञविषयैःसम्प्रयोग: स्यान्ममेति एवं प्रणिधत्ते दृढं मनस्तदप्यार्तमिति ।।33 || - तत्त्वार्थसिद्धवृत्तौ. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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