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________________ संक्षेप में, इतना ही समझना है कि कोई भी चेतन प्राणी अथवा जड़पदार्थ, जो अनुकूल लगते हैं, उनके प्रति राग और वे सभी प्राणी या पदार्थ जो अनुकूल न लगें, उनके प्रति द्वेष या अरुचि होना पहले प्रकार का आर्त्तध्यान है । दूसरे शब्दों में, 'विषीदन्ति एतेषु सक्ताः प्राणिनः इति विषयाः’ इस उक्ति के आधार पर जिनके जैसे अनुभव से प्राणी दुःखी होता है, उन्हें आर्त्तध्यान - विषय कहा जाता है, जैसे— कर्णकटु शब्द सुनने पर, आंख को नापसंद रूप देखने पर, नाक को प्रतिकूल गंध सूंघने पर, जिह्वा को बेस्वाद वस्तुएं खाने पर और त्वचा को अप्रिय स्पर्श होने पर अर्थात् प्रतिकूल लगने वाला शब्द, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का संयोग मिलने पर द्वेषयुक्त अध्यवसायों के द्वारा उसे दूर करने का चिन्तन-मनन करना तथा भावीकाल में पुनः कभी भी उन अप्रिय वस्तुओं का संयोग न होना - ऐसा अध्यवसाय अनिष्टसंयोग आर्त्तध्यान है। 1 — 2. आतुर - चिन्ता (वेदना) आर्त्तध्यान - ध्यानशतक के प्रणेता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आर्त्तध्यान के दूसरे प्रकार 'आतुर - चिन्ता - आर्त्तध्यान' का निरूपण करते हुए कहते हैं कि आतुर अर्थात् शूल, मस्तकादि के रोगों की वेदना उत्पन्न होने पर उनके निवारण हेतु, प्रतिपल, प्रतिक्षण आकुल-व्याकुल होना, उनके वियोग का चिन्तन सतत चलते रहना तथा भविष्य में उनकी पुनः प्राप्ति न हो - इस चिन्तन में लीन रहना, यह दूसरे प्रकार का आर्त्तध्यान है | 32 स्थानांगसूत्र में लिखा है कि घातक रोगग्रसित होने पर इसके पलायन के लिए बार-बार चिन्तन करना आतंक - आर्त्तध्यान है | 33 31 प्रस्तुत सन्दर्भ ध्यानशतक- सं.- बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री पुस्तक से उद्धृत, पृ. 5. 32 तह सूल-सीसरोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि शारीरिक या मानसिक पीड़ा होने पर उसके निवारण की व्याकुलतापूर्वक चिन्ता करना, अथवा प्रतिकूल वेदना को दूर हटाने के लिए चिन्ता करना रोगचिन्ता - आर्त्तध्यान है । 34 33 34 तद संपओगचिंता तम्पडियाराउलमणस्स ।। - ध्यानशतक, गाथा- 7. स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक - 1, सूत्र - 61, पृ. 222. वेदनायाश्च - तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 32. 108 — Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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