________________
107
ध्यानदीपिका ग्रन्थ में भी आर्त्तध्यान के प्रथम भेद की चर्चा करते हुए कहा गया है- शरीर को घात करने वाले विष, अग्नि, वन, सांप, सिंह, शस्त्र और शत्रु के समान दुष्टभाव रखने वाले जीवों द्वारा जो दुःख की अनुभूति होती है, अथवा अनिष्ट पदार्थों के संयोग द्वारा देखने से या स्मरण करने से मन में जो क्लेश पैदा होता है, वह अनिष्ट-संयोग नामक पहला आर्तध्यान है।
अध्यात्मसार के प्रणेता यशोविजयजी ने भी आर्त्तध्यान के पहले भेद का अर्थ इसी रूप में माना है। वे लिखते हैं कि मन चाहे शब्द, रूप, रस, स्पर्श तथा गंध आदि विषय अथवा प्रियजन का कभी वियोग न हो, सदा पूर्णिमा रहे, कभी अमावस्या नहीं हो, इसी तरह सुख के दिनों का वियोग न हो, निरन्तर व्यक्ति इस चिन्ता में में डूबा रहता है।
आदिपुराण में भी यही सुस्पष्ट लिखा गया है कि किसी प्रियजन अथवा प्रियवस्तु के वियोग होने पर पुनः संयोग-प्राप्ति के लिए पुनः-पुनः चिन्तन-मनन ही आर्त्तध्यान का पहला भेद है।"
ध्यानस्तव में भी इसी बात का समर्थन है।28
ध्यानविचार-सविवेचन में आर्त्तध्यान के प्रथम भेद पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि मनुष्य प्रतिपल-प्रतिक्षण यह सोचता रहता है कि अन्य मनुष्यों का कुछ भी हो, परन्तु मेरा दुःख नष्ट हो, मुझे सुख प्राप्त हो।
___ ध्यानसार में आर्त्तध्यान के प्रथम भेद का वर्णन लगभग दस श्लोकों (श्लोक क्रमांक बत्तीस से इक्तालीस) में किया गया है। इन श्लोकों में आर्तध्यान के प्रथम भेद का उपदेशात्मक रूप में बहुत ही मार्मिक वर्णन किया गया है।30
25 विषदहनवनभुजंगमहरिशस्त्रारातिमुख्यदुर्जीवैः । स्वजनतनुघातकृदभिः सह योगनार्तमाद्यं च ।। श्रुर्तेर्दृष्टैः स्मृतैतिः प्रत्यासत्तिसमागतैः।
अनिष्टाथैर्मनः क्लेशे पूर्वमार्तं भवेत्तदा।। - ध्यानदीपिका, प्रकरण- 5, श्लोक- 71-72. . 26 इष्टानां प्रणिधानं ................. || - अध्यात्मसार, अध्याय- 16, श्लोक-5 का प्रथम चरण. " विप्रयोगे मनोज्ञस्य तत्संयोगानु तर्षणम्। - आदिपुराण, पर्व 21, श्लोक- 32 का पहला चरण. 28 ध्यानस्तव, गाथा- 1.
(क) ध्यानविचार में ध्यान के 24 भेदों में से प्रथम भेद ध्यान, उसके स्वरूप तथा उपभेदों की चर्चा के सन्दर्भ से 'द्रव्यश्चार्त-रौद्रे' पुस्तक ध्यानविचार-सविवेचन से उद्धत, पृ. 12-13. (ख) अमनोज्ञमप्रियं विषकण्टकशत्रुशस्त्रादि।
____तद्वाधाकारणात्वाद् अमनोज्ञम् इत्युच्यते।। - सर्वार्थसिद्धि, 9/30/10. 30 ध्यानसार, श्लोक-32-41, पृ. 9-12.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org