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________________ 106 तत्त्वार्थसूत्र प्रणेता आचार्य उमास्वाति ने आर्तध्यान के चार भेदों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अनिष्ट अर्थ, चेतन और अचेतन- दोनों प्रकारों का होता है। कुरुप, दुर्गन्धयुक्त शरीर वाली स्त्री आदि तथा भय उत्पन्न करने वाले सर्पादि अमनोज्ञ-चेतन पदार्थ हैं, जबकि शस्त्र, विष, कण्टकादि अमनोज्ञ--अचेतन पदार्थ हैं।22 तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में सिद्धसेन ने भी यही कहा है कि अमनोज्ञ (अनिष्ट) शब्दादि विषयों का इन्द्रियों के साथ ग्राह्य-ग्राहक लक्षण सम्बन्ध होने पर उनके वियोग की चिन्ता- वह अमनोज्ञविषयक प्रथम आर्त्तध्यान है। प्रणिधानस्वरूप स्मृति की जो धारा है, वह समन्वहार कहलाती है, जैसे- मैं इस अमनोज्ञ विषयों के संयोग से शीघ्र मुक्त बनूं। ज्ञानार्णव के रचयिता आचार्य शुभचन्द्र ने अनिष्ट के संयोग से होने वाले प्रथम आर्तध्यान का स्वरूप बताते हुए लिखा है कि अपने कुटुम्बजनों, धन-सम्पत्ति और शरीर को नष्ट करने वाले अग्नि, सर्पादि तथा स्थलचर, जलचर, खेचर आदि प्राणियों अथवा पदार्थों के सम्बन्ध से जो यहां संक्लेश और चिन्ता होती है, वह ही आर्त्तध्यान का प्रथम प्रकार है। 22 आर्त्तममनोज्ञास्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः। - तत्त्वार्थसूत्र- 9/30. 23 अमनोज्ञ अनिष्टाः शब्दादयः तेषा सम्बन्धे इन्द्रियेण सह सम्पर्के सति चतुर्णा शब्द-स्पर्श-रस-गन्धानामेकस्य च योग्यदेशावस्थितस्य द्रव्यादेस्तेन विषयिणा ग्राह्यग्राहकलक्षणे सम्प्रयोगे सति तद्विप्रयोगोयेति। तदित्यमनोज्ञ विषयाभिसम्बन्धः । तेषाम् मनोज्ञानां शब्दादिनां विप्रयोगोऽपगमस्तदर्थ विप्रयोगायानिष्टशब्दादिविषयपरिहाराय यः स्मृतिसमन्वाहारस्तदार्तम् । स्मृतिसमन्वाहारोः अमनोज्ञविषयविप्रयोगोपाये व्यवस्थापनं मनसो निश्चलमार्त्तध्यानं केनोपायेन वियोगः स्यादित्येकतानमनोनिवेशनमार्त्तध्यानमित्यर्थः । __ - तत्त्वार्थसिद्धवृत्तौ. 24 ज्वलनवनविषास्त्रण्यालशार्दूलदैत्यैः, स्थलजल बिल सत्त्वैर्दुर्जुनाशाति भूपैः । जनधनशरीर ध्वंसिमिस्वैर निष्टै भवति, यदिह योगादाद्यमार्तं तदेतत ।। तथा चरस्थिरैर्भावैरनेकैः समुपस्थितैः । अनिष्टु यन्मनः क्लिष्टं स्यादात तत्प्रकीर्तितम् श्रुतैर्दष्टैः स्मृतैज्ञातैः प्रत्यासत्तिं च संश्रितै। योऽनिष्टार्थेर्मनः क्लेशः पूर्वमाप्तदिष्यते। - ज्ञानार्णव, प्रकरण- 23, श्लोक- 23-25. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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