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3. इष्ट-वियोग आर्त्तध्यान। 4. निदान-चिन्तन आर्तध्यान ।
ग्रन्थकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण प्रथम अनिष्ट-संयोग आर्तध्यान का निरूपण करते हुए लिखते हैं1. अनिष्ट-संयोग आर्तध्यान - द्वेषयुक्त अध्यवसायों से मलिनता को प्राप्त हुए जीव के मन के प्रतिकूल शब्दादिरूप पांचों इन्द्रियों के विषय और उनकी मूलभूत वस्तुओं के विषय में जो उनके वियोग की अत्यधिक चिन्ता तथा आगामी काल में पुनः उनका संयोग न हो, इसके अनुस्मरण से उत्पन्न अनिष्ट-संयोग के वियोग की चिंतारूप प्रथम आर्तध्यान माना गया है तथा सुने हुए, देखे हुए, स्मरण में आए हुए और समीपता को प्राप्त अनिष्ट पदार्थों के निमित्त से जो मन में संक्लेश-भाव होता है, वह प्रथम आर्त्तध्यान है।
द्वादशांगी का तीसरा अंग स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान के अन्तर्गत प्रथम उद्देश्य में चारों ध्यानों की सुन्दर विवेचना की गई है। सूत्रगत प्रत्येक ध्यान के प्रकारों और उपप्रकारों का वर्णन किया गया है, उसमें आर्त्तध्यान के उपप्रकारों का वर्णन भी मिलता है। आर्तध्यान के प्रथम उपप्रकार को अमोनज्ञ के नाम से सूचित किया है। अनभीष्ट वस्तु का संयोग होने पर उसको दूर करने का बार-बार चिन्तन करना अमनोज्ञ-आर्तध्यान है।
20 अमणुणण्णाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स।
धणियं विओगचिंतणमसंपओगाणुसरणं च।। - ध्यानशतक, गाथा- 6. 21 अट्ठझाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा – “ अमणुण्ण-संपओग-संपउत्ते, तस्स विप्प-ओगसति-समण्णगते यावि भवति। - स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र 61, पृ. 222.
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