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इस प्रकार, आर्तध्यानी के लक्षणों का वर्णन समाप्त होता है। अब आर्तध्यान के चार प्रकारों का वर्णन इस प्रकार से है।
आर्तध्यान के चार प्रकार जैसा कि पूर्व में यह कहा जा चुका है कि भारत देश में ध्यान की परम्परा प्राचीन है और साधना के क्षेत्र में सदा उसे सम्मानपूर्ण स्थान मिला है, क्योंकि ध्यान वीतरागदशा को प्रकट कराने वाली साधना का अभिन्न अंग भी है। जैन आगम- शास्त्रों में आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान के वर्णन की प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है।
प्रायः सांसारिक-जीव यही चाहते हैं कि हमें जीवन में कभी दुःख न मिले, किन्तु संसारी-जीव कर्माधीन होता है। भविष्य से सभी अनभिज्ञ होते हैं। जब व्यक्ति को इष्ट वस्तु का वियोग होता है, तब वह आकुल-व्याकुल हो जाता है। उसका ध्यान बार-बार उसी में एकाग्र रहता है। यहां एकाग्रता तो है, किन्तु इसके परिणाम दूषित हैं, अतः ऐसा ध्यान (एकाग्रता) साधक के लिए अश्रेयस्कर एवं अहितकारी है।
हमारे शोधग्रन्थ ध्यानशतक में भी चारों ध्यानों का वर्णन बहुत ही सूक्ष्मता से वर्णित है। उन चारों ध्यानों में प्रथम ध्यान आर्त्तध्यान है। यहां हम सर्वप्रथम चार भेदों की चर्चा करेंगे, जो इस प्रकार हैं
1. अनिष्ट-संयोग आर्तध्यान। 2. आतुर चिन्ता (वेदना) आर्त्तध्यान ।
19 (क) स्थानांगसूत्र- 10.
(ख) समवायांग, समवाय 5. (ग) भगवतीशतक- 25, उद्देशक 7. (घ) प्रश्न व्याकरण, संवरद्वार-5. (ङ) औपपातिकसूत्र- 30, पृ. 49-50. (च) उत्तराध्ययनसूत्र- 11/14-27, उत्तराध्ययन- 11/14 कि (छ) इसिभासियाइं (ऋषिभाषित) अध्याय 23. (ज) आवश्यकनियुक्ति, 1458. (झ) आराधकपताका, 803-835. (ञ) भगवतीआराधना, गाथा 753. (ट) पगामसिद्धाय, आवश्यकश्रमणसूत्र. (ठ) ध्यानशतक, गाथा 6-85. (ड) ध्यानस्तव, श्लोक 8-23. (ढ) ध्यानसार, श्लोक- 31.
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