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1. आन्तरिक - लक्षण
आर्त्तध्यानी जीवों के आन्तरिक - लक्षण में तो उनकी
विचारधारा के आधार पर वे दूसरे लोगों अथवा अपने मन की कल्पनाओं द्वारा स्वयं ही निर्णय कर सकते हैं। इन आन्तरिक - लक्षणों का दूसरा व्यक्ति तो मात्र अनुभव कर सकता है।
2. बाह्य–लक्षण
आर्त्तध्यानी जीवों का बोलना, चलना, रहना, ताडना
तर्जना, आक्रन्दन, रुदन, सिर फोड़ना, छाती पीटना आदि लक्षणों को देखकर दूसरे मनुष्य यह समझ सकते हैं कि अमुक जीव अभी आर्त्तध्यान की स्थिति में है। यह आर्त्तध्यानी का बाह्य लक्षण है।
आदिपुराण में भी आर्त्तध्यानी के इन्हीं लक्षणों का समर्थन करते हुए कहा गया कि परिग्रह में अत्यन्त आसक्त होना, कुशीलरूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, ब्याज लेकर आजीविका चलाना, अत्यन्त लोभ करना, भय और उद्वेग करना और अतिशय शोक करना - ये आर्त्तध्यान के चिह्न हैं । 16
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अध्यात्ममतपरीक्षायाम् ग्रन्थ में आर्त्तध्यान से सम्बन्धित एक बहुत ही मार्मिक बात बताई गई है- ममत्व का जो परिणाम है, वह ही मूर्च्छा है और यह ममत्व के परिणामरूप मूर्च्छा अज्ञान लक्षण वाली नहीं है, दूसरे शब्दों में, वह ज्ञानलक्षण वाली है। उसका नाश भी (ममत्व - परिणाम ) ज्ञान से ही होता है । इष्ट के अवियोग का विचार और अप्राप्त इष्टवस्तु की आकांक्षा या अभिलाषा ज्ञानस्वरूपा है। 17
इसका नाश अनित्यता के चिन्तन से होता है और वस्तु की अनित्यता या संयोगों की अनित्यता का ज्ञान उस मूर्च्छा या आसक्ति को तोड़ देता है। दोनों ज्ञान हैं, किन्तु पहला मिथ्याज्ञान और दूसरा सम्यग्ज्ञान है। 18
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मूर्च्छा-कौशील्य-कैनाश्य - कौसीद्या-न्यतिगृध्नुता ।
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भयोद्वेगानुशोकाश्च, लिङ्गान्यार्त्त स्मृतानि वै ।। - आदिपुराण, पर्व 21, गाथा - 40.
रु 1 परिग्रहः । 2 कुशीलत्व । 3. लुब्धत्व अथवा कृतघ्नत्व । 4. आलस्य । 5. अत्यभिलाषिता 6. इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः । चित्तचलन ।
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ममत्वपरिणामलक्षणा मूर्च्छा, ममत्वपरिणामश्च नाज्ञानलक्षणः तस्य ज्ञानादेव नाशात्, प्राप्तेष्टवस्त्ववियोगाध्यवसानाऽप्राप्ततदभिलाषलक्षणार्त्तध्यानस्वरूपः । ।
किन्तु
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अध्यात्ममतपरीक्षायाम्, गाथा - 6.
शोकशंकाभयभ्रान्ति
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इत्यार्त्तध्यानलक्षणम् ।। - ध्यानसार, श्लोक - 71-72, पृ. 22.
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