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का कारण हैं।108 राग-द्वेषजन्य होने से आर्त्त एवं रौद्र- इन दोनों ध्यानों को बन्धन का हेतु माना गया है और इसलिए शास्त्रकारों ने इन्हें संसार–परिभ्रमण का हेतु बताया है।
वस्तुतः, चार ध्यानों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान कषायजन्य हैं, इसलिए वे बन्धन के हेतु हैं।
साधना की दृष्टि से धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान का स्थान और महत्त्व
___ साधना की दृष्टि से आध्यात्मिक विकास यात्रा में ध्यान एक महत्त्वपूर्ण सोपान है। ढाई अक्षर का यह शब्द साधनात्मक-जीवन के महत्त्वपूर्ण पक्षों का प्रतिनिधित्व करता है और साधक का साध्य से तादात्म्य करा देता है।
मनुष्य-जीवन का चरम ध्येय अपने आध्यात्मिक-विकास के द्वारा आत्म-विशुद्धि करके अपने निज शुद्ध स्वरूप में रमण करना है।109 दूसरे शब्दों में कहें, तो मोक्ष अथवा निर्वाण तृष्णारूपी अग्नि को शांत कर स्वरूप में अवस्थिति है।
इस स्वात्मानुभूति के लिए अध्यात्म-मार्ग या अध्यात्म-विद्या का अनुसरण अपेक्षित है।110 योग या ध्यान के विषय में जैन, बौद्ध और वैदिक-महर्षियों का मानना यही है कि निर्वाण या मोक्ष का अन्तिम साधन ध्यान अथवा समाधि है।
मोक्ष का अन्तिम साधन योग-निरोध (ध्यान) है। यह बात न केवल जैनदर्शन की है, अपितु समस्त भारतीय-दर्शन समवेत रूप से इसका समर्थन करते हैं, क्योंकि पतञ्जलि भी कहते हैं- 'योगश्चित्तवृत्ति-निरोधः', अर्थात् योगसाधन चित्तवृत्तियों का निरोध है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है कि चार ध्यानों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान अशुभ हैं, क्योंकि वे कर्मबन्ध के हेतु माने गए हैं। 12
108 जैन-साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग- 4, पृ. 13.
जैनागमों में अष्टांगयोग, उपोद्घात, पृ. 01.
अध्यात्मविद्या विद्यानाम। - भगवद्गीता- 10/32. 111 (क) योगः कल्पतरू: श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः ।
योगः समाधि धर्माणां योगः सिद्धेः स्वयं गृहः ।। - योगबिन्दु, श्लोक 37. (ख) योगः समाधिः स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः । (ग) दीर्घनिकाय- 1/2, पृ. 28-29. 112 (क) भवकारणमट्ट-रूद्दाइं। - ध्यानशतक, गाथा 5. (ख) पंचवस्तु, गाथा 28.
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