SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वहां दुःख है। 101 जैनागमों में राग- - द्वेष के जन्य क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि मलीन मनोवृत्तियों को कषाय की संज्ञा दी गई है।' 102 कषाय शब्द का अर्थ कसना या लिप्त करना है । जो आत्मशक्तियों को कृश करती है, या आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है, उसे कषाय कहते हैं। 103 मुख्य रूप से कषाय शब्द का उपयोग क्रोधादि की वृत्ति के लिए ही हुआ है । " प्राचीनतम आगम आचारांगसूत्र के अन्तर्गत उपर्युक्त दोनों अर्थों में कषाय शब्द का प्रयोग है । सूत्रकृतांग में एक स्थान पर कटुवचन के लिए भी कषाय शब्द का प्रयोग है 105 आचारांगसूत्र की वृत्ति में शीलांकाचार्य ने कषाय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से की है- कष अर्थात् संसार और आय अर्थात् वृद्धि या लाभ। जिससे संसार की वृद्धि होती है, वह कषाय है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का यह मन्तव्य है 100 – दु:खों की मूल जड़ कषाय है। जिससे दुःखों की प्राप्ति होती है, वह कषाय है। राजवार्त्तिककार ने कहा है- 'जो आत्मा का हनन करे, जो आत्मा को पतन की ओर कुमार्ग तथा कुगति में ले जाए, वह कषाय है । उपर्युक्त उद्धरणों से यह सुस्पष्ट है कि मूलतः कषाय ही बन्धन का मुख्य हेतु है । जैनागमों में बन्धन की चार स्थितियां बताई गई हैं- 1. प्रदेश-बन्धन प्रकृति-बन्धन 3. स्थिति -बन्धन 4. अनुभाग - बन्धन | 107 इन चारों में भी स्थिति -बन्ध और अनुभाग - बन्ध (बन्धन की तीव्रता ) ये दोनों कषाय की उपस्थिति में ही होते हैं, क्योंकि आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान- दोनों में कषाय या राग-द्वेष की सत्ता रही हुई है। सामान्य तौर से कषाय के अनेक रूप हो सकते हैं, किन्तु मोटे तौर पर उसके दो रूप हैं- राग और द्वेष । राग-द्वेषजनित शारीरिक एवं मानसिक - प्रवृत्तियां ही कर्मबन्ध 101 जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग- 1, डॉ सागरमल जैन, पृ. 294. 102 समवाओ, समवाय 4, सूत्र - 1. 103 ण तित्ते, ण कडूए, ण कसाए । - आयारो, अध्ययन 5, उद्देशक 6, सूत्र 130. • आयारो, अध्ययन 8. उद्देशक 6, सूत्र 105. 104 106 अप्पेगे पलियंतेसि 106 कसाए पयगुए किच्चा 107 -1 Jain Education International ..बाला कसायवयणेहिं । - सूत्रकृतांग, अध्ययन 3 उद्देशक 1, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2978. गाथा- 15. कम्मं कस भवो वा कसमाओ सिं जओ कसाया ता ..... । — प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः । तत्त्वार्थसूत्र - 8/4. 93 For Personal & Private Use Only 2. www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy