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दशवैकालिकसूत्र” में कहा गया है - "अनिग्रहित क्रोध और मान तथा वृद्धिगत माया और लोभ- ये चारों कषाय पुनर्जन्मरूपी वृक्ष का सिंचन करती हैं, दुःख का कारण हैं, अतः समाधि का साधक उन्हें त्याग दे।"
उत्तराध्ययन" में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राग और द्वेष- ये कर्म के
बीज हैं।
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जैसे जैन-दर्शन में राग, द्वेष और मोह बन्धन के मूलभूत कारण माने गए हैं, वैसे ही बौद्ध परम्परा में लोभ (राग), द्वेष और मोह को बन्धन का कारण माना गया है। दूसरे शब्दों में, ये बन्धन के हेतु हैं। अन्य दृष्टि से विचार करें, तो तत्त्वार्थसूत्र में बन्धन के पांच हेतु माने गए हैं - 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. प्रमाद 4. कषाय और 5. योग ।
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आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रमाद को कषाय में समाहित करते हुए बन्धन के चार कारण माने हैं 00 - 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. कषाय और 4. योग ।
उपर्युक्त पांच कारणों में वस्तुतः मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद - ये कषायजन्य हैं, क्योंकि कषाय की सत्ता के बिना ये नहीं होते हैं, अतः वस्तुतः बन्धन के दो ही कारण हैं- - 1. कषाय और 2. योग ।
शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को, योग और क्रोधादि मानसिक - आवेग को कषाय कहा गया है ।
योग चाहे आश्रव का हेतु हों, किन्तु वे कषाय के बिना स्थिति का बन्ध करने में समर्थ नहीं होते हैं, अतः मूलतः बन्धन का हेतु कषाय ही हैं। जहां कषाय है, वहां कर्मबन्ध है और जहां कर्मबन्ध है, वहां संसार - परिभ्रमण है। जहां संसार - परिभ्रमण है,
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स्थानांगसूत्र में कहा है कि राग और द्वेष की उत्पत्ति आसक्ति के द्वारा होती
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(क) उत्तराध्ययनसूत्र- 33/7.
(ख) प्रशमरति, गाथा 31.
दुविहा मुच्छा पन्नता
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अंगुत्तरनिकाय - 3 / 33, पृ. 37.
• (क) तत्त्वार्थसूत्र - 8 / 1. (ख) इसिभासिय - 9 / 5. (ग) समवायांग - 4/5.
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समयसार 171.
ठाणं, स्थान- 2, सूत्र 432.
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