________________
हेतु भी होता है, जबकि शुक्लध्यान तो एकान्तरूप से संवर और निर्जरा का हेतु होने से मोक्ष का चरम साधक माना गया है, अतः उसे शुद्धध्यान भी कहा गया है।
इस प्रकार, संक्षेप में कहें, तो आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान वस्तुतः अशुभ-ध्यान हैं, धर्मध्यान पुण्यबन्ध की अपेक्षा से निश्चय के अनुसार चाहे अशुभ कहा जाए, किन्तु वह भी मोक्ष का हेतु होने से और शुक्लध्यान की पूर्ववर्ती अवस्था होने से शुभ ही है। शुक्लध्यान का शुभत्व केवल कर्मो की निर्जरा और मोक्ष का हेतु होने से व्यवहार-नय से ही माना गया है। मूलतः तो वह शुद्धध्यान है। उसमें संवर और निर्जरा ही घटित होते हैं, कर्मबन्ध नहीं हैं।
आर्तध्यान और रौद्रध्यान बन्धन के हेतु
जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया कि चारों ध्यानों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान संसार–परिभ्रमण या बन्धन के हेतु हैं और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान मुक्ति के हेतु हैं। यद्यपि धर्मध्यान में बन्धन की सम्भावना है, किन्तु वह शुभकर्मों का ही बन्ध करता है, इसलिए अन्ततः निर्जरा में सहायक होकर मुक्ति का कारण बन जाता है, अतः संसार के परिभ्रमण के कारण तो आर्तध्यान और रौद्रध्यान ही हैं।
यह परिभ्रमण कर्मबन्ध के बिना नहीं हो सकता, इसलिए यह सुस्पष्ट है कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान- ये कर्मबन्ध के हेतु हैं। ये कर्मबन्ध के हेतु क्यों हैं ? इसे समझने के लिए हमें यह जान लेना होगा कि आर्तध्यान मुख्यतः राग एवं अंशतः द्वेष के कारण ही होता है, जबकि रौद्रध्यान मुख्यतः द्वेष के कारण ही होता है। राग-द्वेष से कषाय उत्पन्न होती हैं, उनमें लोभ और मान रागरूप हैं और क्रोध और माया द्वेषरूप
हैं।93
कषायपाहुड में इन चारों ही कषायों को द्वेषरूप कहा गया है, क्योंकि ये संसार–परिभ्रमण का कारण हैं।94
9 ठाणं, स्थान- 2, सूत्र 3637, पृ. 42.
कषायचूर्णि, अध्याय 1, गाथा 21, सूत्र 19. दशवैकालिक- 8/40.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org