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________________ बन्ध तो सम्भव है, तीर्थकर - नामकर्म जैसी पुण्य - प्रकृति का बन्ध भी धर्मध्यान से ही होता है, किन्तु तीर्थकर - नामकर्मरूपी पुण्य - प्रकृति अशुभ तो नहीं मानी जा सकती है । " नामकर्म में तीर्थकर नामकर्म का विशिष्ट स्थान है, अतः उसके बन्ध के भी विशिष्ट कारण हैं। उनका वर्णन ज्ञाताधर्म में किया गया है । 2 धर्मध्यान चाहे पुण्य - प्रकृति का बन्ध करता हो, किन्तु वह शुभ का ही बन्ध करता है। दूसरे, ये पुण्य - प्रकृतियां भी आंशिक रूप से संवर और निर्जरा का भी हेतु होती हैं और इस दृष्टि से ये जीव के संसार - परिभ्रमण को कम भी करती हैं। यहां हमें एक बात और ध्यान में रखना चाहिए कि पाप - प्रकृति का क्षय करना होता है, जबकि पुण्य - प्रकृति स्वतः ही क्षय हो जाती है, इसलिए वे दीर्घ संसार - परिभ्रमण का कारण तो कभी नहीं हो सकतीं, अतः धर्मध्यान के शुभत्व में कोई बाधा नहीं आती है । शुक्लध्यान मूलतः तो शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान है । वह न तो कर्मबन्ध का हेतु बनता है और न ही संसार - परिभ्रमण का कारण होता है। वैसे तो शुक्लध्यान शुद्धध्यान है, किन्तु सामान्य अपेक्षा से संसार - परिभ्रमण का अन्त करने वाला तथा मोक्ष का हेतु होने के कारण उसे शुभ कहा गया है, फिर भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि मुक्ति तो केवल शुक्लध्यान से ही सम्भव है, वह नितान्त शुभ या शुद्ध है। धर्मध्यान शुक्लध्यान में साधन बनता है, इसलिए वह शुभ कहा जाता है। धर्मध्यान की स्थिति में जहां एक ओर पुण्य - प्रकृति का बन्ध होता है, वहीं दूसरी ओर वह संवर और निर्जरा का 91 (क) सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं । तत्त्वार्थसूत्र - 8/25. (ख) अरहंत - सिद्ध-पवयण - गुरू -थेर - बहुस्सुए तवस्सीसु । वच्छलया य तेसिं अभिक्खाणाणोवओगेय ।। 1 ।। दंसण विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारं । रवण लव तवच्चियाए वेयावच्चे समाहीय ।। 2 ।। अव्वाणगहणे सुयभत्ती पवयणे प्रभावणया । एएहिं कारणेहिं तित्थयरेतं लहइ जीवो ।। 3 ।। - (ग) अंगं न गुरू न लहुअं जायइ जीवस्स अगुरूलहुउदया। तित्थेण तिहुअणस्सवि पुज्जो से उदओकेवलिणो ।। 92 - ज्ञाताधर्मसूत्र, अध्याय 8, सूत्र 64. (घ) वन्न चउक्क गुरू लहु परघा उस्सास आयवुज्जोअं । सुभखगइ निमिणतसदस सुरनरतिरिआउ तित्थयरं । । परे मोक्ष हेतू । - तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 3. Jain Education International प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा 47. नवतत्त्वप्रकरण, गाथा 16. For Personal & Private Use Only 90 www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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