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चार ध्यानां के शुभत्व और अशुभत्व का प्रश्न -
जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि ध्यानशतक के अन्तर्गत चारों ध्यानों में आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान अशुभ माने गए हैं और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान शुभ माने गए हैं,88 क्योंकि आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान संसार-परिभ्रमण एवं कर्मबन्ध के हेतु हैं और कर्मबन्ध का कारण राग-द्वेष से युक्त प्रवृत्ति है। ये कर्मबन्ध के हेतु हैं, इसकी विशेष चर्चा हम आगे करेंगे।
सामान्यतया, जैनदर्शन में जो बन्धन के हेतु हैं, उन्हें अशुभ ही माना जाता है, अतः आर्तध्यान, रौद्रध्यान को अशुभ मानने में कोई समस्या नहीं है, किन्तु धर्मध्यान और शुक्लध्यान में शुक्लध्यान तो निश्चय ही निर्जरा का हेतु है और इस प्रकार कर्मबन्ध और संसार–परिभ्रमण का कारण नहीं है, किन्तु धर्मध्यान में शुभकर्मों का बन्ध तो माना गया है और शुभकर्मों का बन्ध होने से वह संसार-परिभ्रमण का कारण भी बनता है। इस दृष्टि से यदि देखें, तो धर्मध्यान भी अशुभ माना जा सकता है, क्योंकि वह कर्मबन्ध एवं संसार-परिभ्रमण का हेतु भी होता है। फिर भी, हमें यह ध्यान में रखना होगा कि धर्मध्यान पुण्यबन्ध का ही हेतु है।
जैन-कर्मसिद्धान्त में कर्मों की दोनों प्रकार की प्रवृत्तियां मानी गई हैं1. पुण्य-प्रकृति और 2. पाप-प्रकृति। इन्हें पुण्यबन्ध और पापबन्ध भी कह सकते हैं, किन्तु यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि पाप-प्रवृत्तियां घाती-कर्मों को ही होती हैं, आर्तध्यान और रौद्रध्यान बन्ध के हेतु होने के साथ-साथ वे पाप-प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं, इसलिए इन दोनों ध्यानों को अशुभ ही माना गया है। धर्मध्यान में कर्मों का
अटै रूई धम्म सुक्कं, झाणाइ तत्थ अंताई। निव्वाणसाहणाइं, भवकारणमट्ट-रूद्दाइं।। - ध्यानशतक, गाथा 5. प्रशस्तमप्रशस्तं च ध्यानसंस्मर्यते द्विधा।
शुभाशुभाभिसंधानात् प्रत्येक तदद्वय द्विधा ।। - आदिपुराण, पर्व 21, श्लोक 27. (ग) द्वौ द्वौ कारण भवमोक्षयोः। - अध्यात्मसार, अध्याय 16, श्लोक 3. (घ) रागद्वैषौ शमी मुक्त्वा यद्यद्ववस्तु विचिंतयेत्।।
तत्प्रशस्तं मतं ध्यानं रौद्राध्यं चाप्रशस्तकम।। - ध्यानदीपिका, प्रकरण 4, श्लोक 61. (ङ) ध्यान-विचार.
(च) ध्यानशतक :एक परिचयः जैनधर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग 7, डॉ सागरमल जैन, पृ. 45. 89 कर्मसिद्धान्त पुस्तक से उद्धृत, पृ. 7. ० योगसार, बन्धाधिकार, गाथा 2.
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