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कर्मबन्धन के कारण संसार का परिभ्रमण होता है और जैन-दर्शन के अनुसार, सांसारिक-परिभ्रमण से मुक्ति कषाय-मुक्ति से ही सम्भव है, क्योंकि कषाय बीज हैकर्म का और कर्म हेतु है- संसार-भ्रमण का।13
उत्तराध्ययनसूत्र में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कषाय एक अग्नि है और उस कषायाग्नि से दहकती आत्मा अशांत होती है।114 भवभ्रमणा का निवारण ही मानव-जीवन का लक्ष्य माना गया है।
इस आधार पर यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि साधना की दृष्टि से आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान का कोई महत्त्व एवं स्थान नहीं है। जैन-आचार्यों ने साधना की दृष्टि से धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान- इन दोनों को ही महत्त्व दिया, क्योंकि ये कर्म-निर्जरा के हेतु बन सकते हैं। हम पूर्व में ही सूचित कर चुके हैं कि धर्मध्यान शुक्लध्यान की ओर प्रगति करने के लिए साधनरूप है।
जिस प्रकार दूध को गर्म करना है, तो सर्वप्रथम दूध जिस भाजन में है, उसे भी गरम करना होता है, परन्तु लक्ष्य तो दूध गरम करने का होता है। भाजन का गर्म करना साधनरूप है, उसी प्रकार धर्मध्यान भी शुक्लध्यान की ओर अग्रसर होने का मात्र एक साधन है। दूसरे शब्दों में, धर्मध्यान साधन है और शुक्लध्यान साध्य है, क्योंकि वीतरागता या मोक्ष की उपलब्धि शुक्लध्यान से ही सम्भव है। उसका सम्बन्ध मात्र स्वरूपानुभूति से है। इसमें आत्मा सविकल्पदशा से निर्विकल्पदशा में स्थित होती है115, फिर भी शुक्लध्यान की अवस्था को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम हमें धर्मध्यान को स्थान एवं महत्त्व देना होगा, क्योंकि अशुभ को दूर करने के लिए शुभ का आलम्बन आवश्यक है।
सम्मतिप्रकरण में धर्मध्यान के दो प्रकारों का वर्णन है। वे दोनों प्रकार निम्नांकित हैं- 1. बाह्य-धर्मध्यान और 2. आध्यात्मिक-धर्मध्यान। 16
113 (क) आर्त रौद्रं च धर्म च शुक्लं चेति चतुर्विधम्।।
तत् स्याद् भेदाविह द्वौ द्वौ कारणं भवमोक्षयोः ।। - अध्यात्मसार, अध्याय 16, श्लोक 3. (ख) तत्राद्यं संसृतेर्हेतुर्द्वयं मोक्षस्य तत्परम् । - ध्यानस्तव, श्लोक- 8. (ग) कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव । - ध्यानदर्पण, पृ. 46. 114 उत्तराध्ययन- 23/53. 11 जैनधर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-7. प. 37. 116 सम्मतिप्रकरण, काण्ड 3, गाथा 53.
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