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________________ भिन्नता है, वह भाषागत है, वह स्वरूपगत भिन्नता नहीं है। जो नामों में उलझते हैं, वे सत्य की अनुभूति से एवं मुक्ति से दूर हो जाते हैं । इस प्रकार, इतना अधिक उदारवादी व्यक्तित्व का धनी आचार्य हरिभद्र के अतिरिक्त अन्य कोई मिले, यह असम्भव है। अपनी इन विशेषताओं की वजह से भारतीय दर्शन के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र अनुपम हैं, अद्वितीय हैं। अनेकता में एकता का सूत्र धर्म के क्षेत्र में विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों में, धार्मिक क्रियाओं में विभिन्नता के पाठ पढ़ने को मिलते हैं, फिर भी उनमें अनेकता के साथ एकता के सूत्र भी होते हैं, पर विरले ही लोग होते हैं, जो अनेकता में एकता को खोज लेते हैं। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि सम्यग्दृष्टि थी, इसी कारण वे विविधता में भी एकता के दर्शन कर सके। उन्होंने इन विविधताओं में भी सम्यक् समाधान पा लिया । वास्तव में, समस्याएं उन्हें घेरती हैं जिनकी दृष्टि ही सम्यक् नहीं है। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि सम्यक् थी, अतः समस्या उनके लिए समस्या नहीं बनी, अपितु समाधान बनी, शाप नहीं बनी, अपितु वरदान बनी और यही कारण था कि हरिभद्र साधना के क्षेत्र में विविधता के स्थान पर समन्वय स्थापित करने में ही लगे रहे। वे यह समझते थे कि विचार - वैभिन्य हो सकता है, क्रियाएं भिन्न हो सकती हैं, व्याख्या करने की शैली में भिन्नता हो सकती है, मोक्ष मार्ग के रास्ते अनेक हो सकते है पर मंजिल तो एक है, मोक्ष एक है, लक्ष्य तो एक है। वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के सेवक हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार पद्धतियाँ बाह्यतः भिन्न-भिन्न होकर तत्वतः एक ही हैं । सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है, तत्त्वतः भेद नहीं होता है । " आचार्य हरिभद्र की दृष्टि आचारगत और साधनागत जो भिन्नताएँ हैं, वे मुख्य रूप से दो आधारों पर टिकी हैं। एक, साधकों की रुचिगत विभिन्नता के आधार पर और दूसरी, नामों की भिन्नता के आधार पर। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ऋषियों के उपदेशों में जो भिन्नता है, वह उपासकों की योग्यता के आधार पर है। जिस प्रकार वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों के आधार पर भिन्न-भिन्न औषध प्रदान करता है, उसी प्रकार ऋषिगण भी भवरूपी रोग का हरण करने के लिए साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की अलग-अलग विधियाँ बताते हैं । 2 61 योगदृष्टि समुच्चय- 107-109 62 चित्रा तू देश नै तेषां स्याद् विनेयानु गुण्यतः यस्तादेते महात्मानो भवव्याधि भिषग्वराः । । -योगदृष्टि समुच्चय, 134 Jain Education International For Personal & Private Use Only 63 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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