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साधना के क्षेत्र में आराध्य का नाम-भेद महत्वपूर्ण नहीं- आचार्य हरिभद्र के विचारों के अनुसार धर्म कोई भी हो, धर्म के प्रवर्त्तक कोई भी हों, धर्म के शास्त्र कोई भी हों, धर्म-उपासना की विधि कुछ भी हो, पर धर्माराध्य को लेकर किसी भी प्रकार से भेद-भाव न हो, किसी भी प्रकार का विवाद न हो, किसी भी प्रकार से तनाव न हो और न मनमुटाव हो । उनका मानना है कि धर्म की ओट में हम किसी भी प्रकार से बखेड़ा खड़ा न करे। अपने ही आराध्य को सर्वोत्कृष्ट मानकर शेष धर्मों के आराध्यों में दोष देखना या द्वेष रखना गलत है। 'लोकतत्त्वनिर्णय' में वे कहते हैं।
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यस्य अनिखिलाश्च वोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।
वास्तव में, जिनके राग-द्वेष समाप्त हो गए, जिन्होंने मोह के पाश को तोड़ दिया है, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना जिनके ह्दय में समा गई है, जगत् के सर्व प्राणी उनके मित्र हैं, अंशमात्र भी जिनके मन में भेद नहीं है, जिनमें सर्व गुण विद्यमान हैं, फिर वे ब्रह्मा हो कि विष्णु या जिन हो, चाहे किसी भी धर्म के इष्ट हों, उनमें कोई भेद नहीं है। सभी धर्म व दर्शनों में परमतत्त्व, परमसत्ता परमात्मा को राग-द्वेष से उपरत मोह से मुक्त, आसक्ति से रहित, विषय-वासनाओं से विरत, परम कारुणिक माना है, परन्तु हमारी बुद्धि परम आत्मस्वरूप में न लगकर नाम के भेद में लग गई और यही नाम-भेद सभी के बीच विवादास्पद स्थिति पैदा करता है। नाम-भेद मुक्ति के लिए कोई महत्व नहीं रखता। जहाँ भेद-विकल्प है, वहाँ मोक्ष नहीं है, अतः नाम-भेद की वास्तविकता समझ में आना चाहिए नाम से ही यदि मोक्ष मिल जाता, तो जीवन में सद्गुणों को लाने के लिए प्रयास करने की जरूरत ही नहीं होती, अतः नाम का कोई महत्व नहीं है।
आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में लिखा है
सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च ।
शब्देस्तद् उच्चतेड्न्वर्वाद् एक एवैवभादिभिः ।
अर्थात्, सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द-भेद है, उनका अर्थ अथवा उनका तात्पर्य एक ही है।
यह वास्तविकता है कि नाम-भेद तब तक ही रहता है, जब तक हम उस आध्यात्मिक शक्ति की अनुभूति नहीं कर पाते। जब व्यक्ति वीतराग, वीतद्वेष, वीततृष्णा की भूमिका को स्पर्श करता है, तब उसकी दृष्टि में, उसके विचारों में, उसके अन्तर - भावों में नाम - भेदरूपी विवाद ही तिरोहित जो जाता है, अर्थात् उसकी दृष्टि में यह सारा भेद निरर्थक हो जाता है। वास्तव में, भिन्न-भिन्न आराध्यों में जो नामगत
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