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________________ मोक्षेण योजनाद्योग एव श्रेष्ठो यथोत्तरम्।।"60 9. मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण- आचार्य हरिभद्र न केवल जैन-धर्म से जुड़े, न कोई अन्य धर्म से, अपितु वे तो शुद्ध धर्म से जुड़े थे। जो व्यक्ति धर्म से जुड़ता है, तो उसकी दृष्टि सीमित नहीं होती है, सीमातीत होती है। एकपक्षीय नहीं होती है, सार्वभौम होती है। सत्य-असत्य में भेद करने में जिनकी दृष्टि निष्पक्ष होती है, उनके लिए सत्य जिस किसी धर्म में है, वही स्वीकार होता है। उनके लिए 'मेरा है, वही सच है'- ऐसा नहीं है। ऐसी ही प्रज्ञा आचार्य हरिभद्र में थी और यही कारण था कि उन्होंने निष्पक्ष होकर यह स्वीकार किया और स्पष्ट रूप से कहा कि मोक्ष सर्व धर्मों में सम्भव है, शर्त यही है कि समत्व की साधना हो। मोक्ष हमारे ही धर्म में है तथा हमारे धर्म की साधना से ही मुक्ति होगी, मुक्ति के लिए तुम्हें हमारा ही धर्म स्वीकार करना होगा, अन्य धर्म का पालन करते हुए तुम कदापि मोक्ष नहीं पाओगे, ऐसे संकीर्ण विचारों को वह कभी स्थान नहीं देते थे। मेरे ही धर्म में मुक्ति है- ऐसी अवधारणा को वे भ्रान्त ही मानते थे। उन्होंने कहा है - ना साम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्कवादे च तत्ववादे। न पक्षसेवा श्रयेन मुक्ति कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव।। अर्थात् मोक्ष न श्वेत परिधान में है, न परिधान के त्याग में, अर्थात् मोक्ष न श्वेताम्बरत्व में है न दिगम्बर में, न तर्कवाद में मोक्ष है, न तत्त्वचर्चा में, न किसी शास्त्र-विशेष पर विश्वास रखने से मोक्ष है, न किसी व्यक्ति-विशेष की परिचर्चा करने से मोक्ष तो वास्तव में कषायों के उपशमन से है, अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करने में ही मोक्ष है। अपने पराए के भेद को समाप्त करने में मोक्ष है। वे सत्य का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि मोक्ष का हेतु कोई धर्म विशेष या सम्प्रदाय-विशेष नहीं है। मोक्ष का आधार तो समन्वययोग की साधना है, कषायों को शान्त करना है, रोग-द्वेष से उपरत होना है। यही मोक्ष पाने की विधि है। जो उसी वीतराग अवस्था को प्राप्त करता है, फिर वह किसी भी धर्म से जुड़ा हो, फिर चाहे वह श्वेताम्बर-धर्म का हो, चाहे दिगम्बर-धर्म का, चाहे वो बौद्ध हो, या वैष्णव, उनके शब्दों में - सेयंबरो या आसंबरो या बुद्धो वा अहव अण्णो वा। समभाव भावि अप्पा लग्हइ-मुक्खं न संदेहो।। वास्तव में, यह सब आचार्य हरिभद्र की उदारदृष्टि का ही परिचय देता है। वे सत्य को कहने में कहीं नहीं चूके, उनके लिए सत्य सत्य है, फिर वह किसी धर्म में हो और वही स्वीकार्य है। ऐसी उदारदृष्टि विरलों में ही मिल पाती है। 60 योगबिन्दु, 31 -हरिभद्र सूरि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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