SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दों के द्वारा निष्पक्ष दृष्टिकोण को अपनाते हुए, यही कारण है कि वे धर्म एवं दर्शन-जगत् में अधि लोकप्रिय बने । 2. दर्शनजगत् में हरिभद्र का स्थान- दार्शनिक विद्वानों की प्राचीन परम्परा में हरिभद्रसूरि का स्थान अद्वितीय है। भारतीय दार्शनिकों की प्राचीन परम्परा में समन्वयवादी दार्शनिक के रूप में प्रथम स्थान हरिभद्र का आता है। इन्होंने जिस ढंग से अन्य दार्शनिक - परम्पराओं को समादरपूर्वक प्रस्तुत किया है, वह अद्वितीय है, अप्रतिम है। भारतीय-दर्शन के इतिहास में सभी प्रमुख दर्शनों की मान्यताओं को यदि एक ही ग्रन्थ में प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने के प्रयास में किसी दार्शनिक को सफलता पाते हुए देखते हैं, तो हमारे सामने हरिभद्रसूरि का ही नाम उभरकर आता है, जिन्होंने सभी मुख्य भारतीय दर्शनों की मान्यताओं को निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रन्थ में पिरो दिया और हरिभद्र का वह ग्रन्थ है- 'षड्दर्शन - समुच्चय' । इस ग्रन्थ की कोटि में अन्य कोई ग्रन्थ प्राचीन भारतीय इतिहास में प्राप्य नहीं है । हरिभद्र के पूर्व जैन, वैदिक, बौद्ध- इन तीनों की परम्परा से जुड़े हुए आचार्यों में से किसी ने भी सर्वदर्शनों की निष्पक्ष व्याख्या प्रस्तुत करने की अपेक्षा से किसी भी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी । सभी ने अपने ग्रन्थों में केवल सभी दर्शनों का खण्डन करने के लिए ही अपनी लेखनी चलाई । इनमें कुछ जैनाचार्य भी हैं, जैसे- आचार्य समंतभद्र, सिद्धसेन दिवाकर " । मल्लवाडी का नयचक्र भारतीयदर्शन का अद्वितीय ग्रन्थ कहलाता है, किन्तु इसका भी मुख्य लक्ष्य सर्वदर्शनों को अपूर्ण बताकर अनेकांतवाद की स्थापना करना ही है । " पं. दलसुखभाई मालवणिया के शब्दों में 'नयचक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मत की स्थापना तार्किक दलीलों से हो सकती है, उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरोधी तर्कों के द्वारा हो सकता है । स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता रहता है, अतएव जब अनेकान्तवाद में ये दर्शन आदि अपना उचित स्थान प्राप्त करे, तभी उचित है, अन्यथा नहीं | 10 चक्र का मूल हेतु यही है- स्वपक्ष का मंडन एवं परपक्ष का खण्डन, अतः हरिभद्र के पूर्व तक सभी दर्शनों के मन्तव्यों को लेकर समन्वय-भाव से लिखा हुआ कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। 38 डॉ. सागरमल जैन, पंचाशक प्रकरण (भूमिका), पृ. XXII 39 डॉ. सागरमल जैन, पंचाशक प्रकरण (भूमिका), पृ. XXII 40 डॉ. सागरमल जैन, पंचाशक प्रकरण (भूमिका), पृ. XXII Jain Education International For Personal & Private Use Only 50 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy