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________________ डॉ. सागरमल जैन के अनुसार जैन- परम्परा में अन्य परम्पराओं के विचारकों के दर्शन एवं धर्मोपदेश के प्रस्तुतिकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसी भासियाई, लगभग ई.पू. 3 री शती) में परिलक्षित होता है। इस ग्रन्थ में अन्य धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रवर्त्तकों, यथा - नारद, असित, देवल, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है। निश्चय ही, वैचारिक- उदारता एवं अन्य परम्पराओं के प्रति समादरभाव का अति प्राचीन काल का यह अन्यतम और मेरी दृष्टि में एकमात्र उदाहरण है। अन्य परम्पराओं के प्रति ऐसा समादरभाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन साहित्य में हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता, स्वयं जैन- परम्परा में भी यह उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकीं। 37 सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम ग्रन्थों में अन्य दर्शनों का विवरण तो प्राप्त है, परन्तु उनमें अन्य दर्शनों के प्रति वैसी उदारता के दर्शन नहीं होते हैं जो ऋषिभाषित में है । जहाँ भगवती में गौशालक के लिए अशिष्ट शब्दों का प्रयोग किया गया है, वहीं ऋषिभाषित में गौशालक के लिए अर्हत् ऋषि का सम्बोधन दिया है। ऋषिभाषित के बाद ऐसी उदार दृष्टि हरिभद्र में ही दिखाई देती है । हरिभद्र की उदार दृष्टि से यह परिलक्षित होता है कि जैन दर्शन में ही नहीं अपितु समग्र भारतीय-दर्शन में उनका योगदान कितना महान् है । जैन- दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण दिया है। सिद्धसेन दिवाकर ने कई कृतियों की रचना मात्र अन्य दर्शनों का निरूपण करने के लिए ही रची, परन्तु ये कृतियां पाठ की अशुद्धि एवं व्याख्या के अभाव में स्पष्ट अर्थबोध कराने में असमर्थ रहीं। पं. सुखलाल संघवी ने इन्हें अप्रामाणिक माना। हालांकि दिवाकर ने अनेकान्तदृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं उदारता के दर्शन भी करवाए हैं, परन्तु समन्वयशीलता व उदारता की महत्वपूर्ण भूमिका, जो हरिभद्र ने अदा की, वह सिद्धसेन दिवाकर तो क्या, उनके पूर्ववर्ती किसी भी दार्शनिकों की कृतियों में परिलक्षित नहीं होती है । हरिभद्र के परवर्ती दार्शनिकों ने यदि अपने ग्रन्थों में उदारता का खुलकर परिचय दिया भी है, तो यह उदारता हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती है । सिद्धसेन दिवाकर ने 32 द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें 9 वीं में वेदवाद, 10 वीं में योगविद्या, 12 वीं में न्यायदर्शन, 13 वीं में सांख्यदर्शन, 14 वीं में वैशेषिक दर्शन, 15 वीं में बौद्धदर्शन और 16 वीं में नियतिवाद की समीक्षा प्रस्तुत की गई है, फिर भी वे अनेक प्रसंगों पर व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग करते नहीं चूके, जबकि हरिभद्र ने बिल्कुल सीधे-सादे ढंग से समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। हालांकि उन्होंने भी धर्म व दर्शन के क्षेत्र में बढ़ते अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन किया है, परन्तु संयत एवं शिष्ट 37 डॉ. सागरमल जैन, पंचाशक प्रकरण (भूमिका), पृ. XIX Jain Education International For Personal & Private Use Only 49 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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