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वैदिक-परम्परा में भी 'सर्वसिद्धान्त-संग्रह' ग्रन्थ का उल्लेख है, जिसे शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित कहा जाता है, किन्तु कई विद्वानों द्वारा इसे प्रथम शंकराचार्य द्वारा रचित मानने में सन्देह प्रकट किया गया
प्रस्तुत ग्रन्थ की शैली नयचक्र से मिलती-जुलती है, लेकिन जहाँ नयचक्र अन्तिम मत का भी प्रथम मत से विरोध कर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहीं सर्वसिद्धान्त-संग्रह वेदान्त को एकमात्र अन्तिम सत्य स्वीकार करता है।
हरिभद्र के 'षड्दर्शन-समुच्चय' में निष्पक्ष प्रस्तुतिकरण की जो विशेषता है, वह निष्पक्ष भाव 'सर्वसिद्धान्त-संग्रह' के प्रतिपादन में नहीं देखा जाता है।
बौद्धिक-परम्परा में दूसरी मान्यता प्राप्त माधवाचार्य (ई. 1350) के 'सर्वदर्शन-संग्रह' का नाम आता है। इस ग्रन्थ का मूल उद्देश्य यही है कि वेदान्त ही एकमात्र सत्य है।
'सर्वसिद्धान्त-संग्रह' व सर्वदर्शन-संग्रह षड्दर्शन-समुच्चय से पूर्णतः भिन्न है, क्योंकि हरिभद्र ने 'षड्दर्शन-समुच्चय' में सर्व मतों को समानता देते हुए निष्पक्ष दृष्टि से विविध दर्शनों का प्रस्तुतिकरण किया है, जबकि वेदान्त के इन दोनों ग्रन्थों ने स्वपक्ष की स्थापना और परपक्ष के खण्डन की ही शैली अपनाई है।
वैदिक-परम्परा में तीसरी प्रमुख कृति 'मधुसूदन सरस्वती' द्वारा रचित 'सर्वदर्शन-कौमुदी' है। इस ग्रन्थ का विषय-क्रम एवं शैली अन्य ग्रन्थों से भिन्न है, यद्यपि ग्रन्थ में भी वैदिक व अवैदिक-दर्शनों का समावेश किया है।
इसमें अवैदिक-दर्शनों में बौद्ध, जैन एवं चार्वाक-दर्शन की चर्चा की है तथा वैदिक-दर्शन में न्याय, वैशेषिक और सांख्य-दर्शनों को समाविष्ट किया है, परन्तु इस ग्रन्थ की शैली खण्डनात्मक है। अतः इन सभी ग्रन्थों में हरिभद्र के 'षड्दर्शन-समुच्चय' जैसी निष्पक्षता एवं उदारता नहीं मिलती है।
पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार वैदिक-परम्परा के वाचस्पति मिश्र एकमात्र अपवादस्वरूप लेखक रहे हैं, जिन्होंने वैशेषिक-दर्शन को छोड़कर शेष पाँच दर्शनों पर निष्पक्ष ग्रन्थ लिखें। इनसे पहले किसी वैदिक लेखक ने यह कार्य नहीं किया। वाचस्पति मिश्र ने नया मार्ग अपनाते हुए स्वतंत्र रूप से प्रत्येक दर्शन का समर्थन किया, किन्तु वह भी हरिभद्र के समान उदारता प्रकट नहीं कर पाए।
41 डॉ. सागरमल जैन, पंचाशक प्रकरण (भूमिका), पृ. xxIII
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