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________________ आवश्यक है, शरीर को कष्ट देने की क्या आवश्यकता है ? किन्तु, जैनधर्म की तपस्या काया को कष्ट देने के लिए नहीं है, अपितु आत्मा को विशुद्ध बनाने के लिए है। परमात्मा एवं सुख-शान्ति पाने के लिए है। विश्व के लोग बाह्य-सुख पाने के लिए कितना कष्ट उठा रहे हैं, कहाँ-कहाँ दौड़ लगा रहे हैं। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, भूख-प्यास कितना सहन करते हैं। घर के मोह का त्याग करके, माता-पिता के आश्रय को छोड़कर, पत्नी-बच्चों के सुख को छोड़कर देश-विदेशों में घूमते-फिरते हैं, तो क्या वह शरीर को कष्ट नहीं दे रहे हैं ? यह देह-दण्डन नहीं है ? क्षणिक बाह्य-सुख के लिए शरीर को कष्ट देना कष्ट नहीं है और आन्तरिक-सुख के लिए शरीर का कष्ट, कष्ट है ? यदि बाह्य-सुख के लिए शरीर माध्यम है, तो शरीर को कष्ट देना आवश्यक है, सुखों को छोड़ना आवश्यक है। इसी प्रकार आत्मिक-सुख के लिए भी शरीर ही माध्यम है, क्योंकि आत्मा शरीर रूपी भोजन में रही हुई है, अतः शरीर को कष्ट देना आवश्यक है। क्या मक्खन की शुद्धि के लिए उसे तपाने के लिए उसके आधारभूत भोजन को नहीं तपाया जाता है ? जैनधर्म की तपस्या करने वाला साधक यह समझ पूर्वक करता है कि शरीर रूपी बर्तन को तपाए बिना परमात्मा स्वरूप या शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति नहीं होगी ? मक्खन से शुद्ध द्यी पाना है, तो मक्खन के बर्तन को आग पर तपाना ही होगा। परमात्मा को पाना है, तो आत्मस्थित शरीर को तप की आग में तपना होगा। संसार की रीति है कि कष्ट उठाए बिना सुख प्राप्त नहीं हो सकता है। एक माँ बच्चे का सुख तब देख सकती है, जब वह नौ माह कष्ट को सहन करती है। पहली बार अपने बच्चे का मुख कब देखती है, जब वह प्रसव की पीड़ा को सहन करती है, एक माँ अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाने का सुख कब देख सकती है। जब श्रम के द्वारा अर्थ अर्जन कर वह अपने बच्चे के लिए उसका उपयोग करती है। ___एक व्यापारी धन का सुख कब देखता है, जब इधर-उधर भागदौड़ करता है, अपमान सहन करता है, भूख-प्यास सहन करता है आदि कष्टों को सहन करने पर ही धनार्जन का सुख पा सकता है। एक विद्यार्थी अपने लक्ष्य का सुख कब देख सकता है ? जब पढ़ने का श्रम करता है, तभी परिणाम सुखद आता है। 608 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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