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उत्तराध्ययन के अनुसार- करोड़ो भव में संचित कर्मों का क्षय करने का उपाय है, तप से रागद्वेषजन्य पापकर्मों को क्षीण किया जाता है।'
____ उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य बृहवृत्ति के अनुसार- जो पूर्व उपार्जित कर्मों को क्षीण करता है, वह तप है। अर्हत् वचन के अनुकूल तप ही सम्यक् तप है और यही तप उपादेय है, अर्थात् ग्रहण करने योग्य है।
___ दशवैकालिक जिनदासचूर्णि के अनुसार'- जो आठ प्रकार की कर्म-ग्रन्थियों को तपाता है, अर्थात् नाश करता है, वह तप है।
सूत्रकृतांग में तप की सार्थकता के बारे में बताया है किसउणी जह पंसु गुंडिया विधुणियधंसयती सियरयं एवं दविओवहाणवं, कम्मं खवति तवस्सि माहणे।
जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों को फड़फड़ाकर उन पर लगी धूल को झटक देता है, इसी प्रकार उपधान आदि तप करके तपस्वी भी अपने किए हुए कर्मों का अपनयन यथाशीघ्र कर देता है।
तप की परिभाषा
तप- तन को तपाकर परमात्मा को पाना, वह तप कहलाता है।' मुण्डकोपनिषद् में तप को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति का साधन बतलाया है।
हिन्दु धर्मकोष के अनुसार, आत्मशोधन ही तप है। तप की प्रासंगिकता
जैनधर्म की तपस्या के विषय में अधिकांश लोगों का तर्क रहता है कि जैनधर्म की तपस्या देह-दण्डन है, ये लोग केवल काया को कष्ट देते हैं ? शरीर के साथ युद्ध करते हैं। मात्र शरीर को ही कष्ट देने से क्या अपवर्ग मिलेगा ? मनशुद्धि
उत्तराध्ययनसूत्र - म. महावीर - 30/6 6 उत्तराध्ययन-शान्त्याचार्यवृत्ति - पं. 556 श्रीभिक्षु आगम विशय कोश - पृ. - 295 7 दशवैकालिक जिनदासचूर्णि - जिनदास - पृ. - 15 8 सूत्रकृतांगसूत्र - प्रथम उद्देशक - गाथा नं. - 103 - पृ. - 122
आओ भाब्दों से कुछ सीखें - साध्वी सम्यकदर्शना 2 108 उपनिशद् – मुण्डकोपनिषद् - प्रथम मुण्डक - प्रथम खण्ड – श्लोक- 8-9
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