SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 630
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ___ एक खिलाड़ी अपनी जीत कब हासिल कर सकता है, जब पूर्व में बहुत शारीरिक-कष्ट (श्रम) उठाता है। यह सामान्य बात है कि बाह्य सुख-साधनों की उपलब्धि के लिए कष्ट उठाना पड़ता है, तो फिर आत्मोपलब्धि के लिए कोई कष्ट उठाना पड़े, तो क्या बड़ी बात है। जैनधर्म की तपस्या में भले ही शरीर को कष्ट होता है, पर यहाँ उसका उद्देश्य शरीर को कष्ट देना नहीं है, उसका लक्ष्य तो परमात्मास्वरूप की प्राप्ति है, आत्मशुद्धि का प्रयास है। शरीर को तपाया नहीं जाता है, वह स्वतः तप जाता है, तप शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं, अपितु आत्मा के विकारों को कष्ट करने के लिए करते हैं, इष्ट को पाने के लिए करते हैं। लोग प्रश्न करते हैं कि मुक्ति पाने के लिए शरीर को कष्ट देने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात् भूखे रहने की क्या जरुरत है ? अन्य साधना भी बहुत है ? कोई (किसी) भी साधना करने के लिए शारीरिक कष्ट सहने का अध्याय तो संलग्न ही है। वह साधना जप की हो, ध्यान की हो, स्वाध्याय की हो या पूजा की हो, शरीर को कष्ट तो देना ही पड़ेगा। तपस्या द्वारा शरीर को कष्ट देने का मुख्य उद्देश्य है- समभाव को प्राप्त करना। समभाव आया है, या नहीं, इसकी परीक्षा तप के माध्यम से होती है, क्योंकि जब तक शरीर को तप की आग में डालकर मन की तटस्थता का अनुभव नहीं किया जाता, तब तक यह कहना कठिन है कि समत्व की साधना में खरे उतर गए। जैनधर्म में शरीर और आत्मा की भिन्नता के स्वरूप को समझाने के लिए तप को एक माध्यम बताया है कि तप की अग्नि में ही व्यक्ति अपने भेद-विज्ञान की परीक्षा कर सकता है, अतः जैनधर्म मे तप देहदण्डन ही नहीं है, अपितु परमात्मा स्वरूप का सर्जक है। यह तो सत्य है कि- कष्ट के बिना आनन्द नहीं है। आनन्द को पाने के लिए कष्ट उठाना ही पड़ता है। कष्ट उठाने के बाद ही आनन्द आता है। एक सेठ ने भोज का आयोजन रखा। नगर के सभी आमन्त्रित लोग सेठ के यहाँ पहुँच गए। थाली लग गई। उसमें एक-एक पत्थर रख दिया गया। सभी इसे अपना अपमान समझकर चले गए, परन्तु एक व्यक्ति तो यह सोचकर बैठा रहा कि इसमें भी कुछ न कुछ रहस्य होना चाहिए। कुछ समय बाद बादाम, पिस्ता, अखरोट आदि मेवा 609 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy